बुधवार, 31 मार्च 2010

कविताएँ






कोप दृष्टि
--बेनार्त माते

मुंबई जाकर मौत ने
कमरा आरक्षित किया
और गुपचुप घूमने लगी
(ग़म के शहर में )
खुशियो के शहर में।

अंधेरा तुरंत फैल रहा था
मगर रात का राज्य तो
नहीं पहुँचा था
(शोक के शहर में)
मनोरंजन के शहर में।

छिप रहा था केशरी सूरज ही
बादलों के खून से
दसों दिशाएँ गूँजने लगीं
दुख के शहर में।

*


छात्रा का एक दिन
-एवा मुद्रा (प्रथमवर्ष)

मैं इधर-उधर आती-जाती
कभी पैश्त घूमती
तो कभी बुदा में आ जाती।
रात को उठती
हल्का फुल्का खाती
दोपहर में सोती
हरदम दिवास्वप्न देखती।
बातचीत करती
टीवी के पास बैठती
कुछ गपशप सुनती
टीवी नहीं देखती
मित्रों के साथ जाती
सामान खरीदवाती
परिवार से मिलती
जल्दी लौटती
इतना सब करती
फिर भी हरदम ऊबी रहती।

*


कौन ?
बेने एडिट (द्वितीय वर्ष)

कौन खेलता है घर में
शायद हवा की आवारा छाया
कौन टहलता है छत पर
शायद एक अकेला यात्री
कौन लाता है कुएँ से पानी
फटे मुँहवाला अकेला लड़का
कौन है छत पर
सुबह जब देखा आकाश
नींद भरी खिड़की झाँकती
मक्खी भी नहीं काँपती
वहाँ चारपाई भी सोती है
मकड़ियों ने बुना उसका कंबल,
आँगन में पशु लेटे
आँखों में उनकी कीड़े चलते
देता कौन उन्हें पानी
बँधा जंजीर से एक कुत्ता
कष्ट उसका अनंत
दम तोड़ने वाला
कौन मदद करता है
टहनी जब टूटी
बकरा डरा काँपा,
मौन भी मर सकता
रहता कौन इस शहर में
अलसाता, घर में समय बिताता,
रहते घर में
छोटे भूत, मक्खियाँ और धूल।

*


एक कविता
-वसिल मिंतशेव

मै थका हूँ
शहर के कुलबुलाते पानी से,
ये जल मेरी आत्मा को
गर्मी नहीं देते
केवल जलाते हैं
मेरी आत्मा को नहीं चाहिए यह
बल्कि चाहिए एक नीरव नदी
शहर से दूर
ठंडी लेकिन साफ।
पेड़ हैं,
जो पनपते ही नहीं कभी,
चाहता हूँ मैं
उनकी छाया में छिपना।
पगडंडियाँ हैं जिन पर
बरसों से किसी ने नहीं डग भरा
चाहता हूँ मैं उनपर विचरना।
जल है जिसने नहीं देखे
पुरुष के नेत्र कभी,
चाहता हूँ मैं
पीना कुछ बूँदे उसकी,
अकेला होता हूँ मैं वन में
पर अकेलापन सालता नहीं,
वन में वेदना नहीं है,
नहीं है वहाँ कोई जो चोट करे
खड़ा वन में,
मैं सुन रहा
वन का सन्नाटा।

*


ताऊ का गाँव
(मेलिंडा कारपाती)

छोटा-छोटा गाँव, रहते थे उसमें ताऊ
नाम था उनका खास,
जानवर थे अनेक; मुर्गियाँ थीं पचास
खेतों में करते काम , कहते हरदम राम-राम।
शुष्क तालाब के आद्र तट पर

शुष्क तालाब के आद्र तट पर
मरा दादुर टरटराता है,
उसको एक उदास जब सुनता है
जो पानी में क्रीड़ा करता है।
अरे-अरे ओ चमगादड़ हममें कुत्ते का खून है
अरे-अरे ओ चमगादड़ हममें कुत्ते का खून है।
अँधा जब देखता है कि वह कूदता है,
पंगु जब उसके पीछे दौड़ता है,
गंजा जब अपने बाल झटकता है,
गूँगा जब चिल्लाता है,
अरे-अरे ओ चमगादड़ चूहा साइकिल चलाता है,
अरे-अरे ओ चमगादड़ चूहा साइकिल चलाता है।
संस्कृत कविता
--लेवार्दी अनीता एवं तिमको ज़ूजान

बोबितो, बोबितो नृत्यति
आबद्धमंडला देवाः सीदंति
भेकाचक्रा वर्णशम वाद्यंति
शलभचक्रः सारग्रहीम वाद्यंति
बोबितो, बोबिताः क्रीडति
सुक्रस्य पक्षम् मंत्रैर निर्माति
आरुह्या चुंबनम् तस्य प्रतिजारिते
तम् पात्यति विडम्बयति च
बोबितो, बोबितो रच्यति
सम्ध्यानीहार कुद्यम् पुरम्
तच्छालासु बहवः आमंत्रिताः
वाम दराजस्य पुत्राः पुत्रिकाश्च
बोबितो, बोबितो निद्रलसा
शरद पत्रे विश्रामयति
क्षितिजंतू निदार्म रक्षतः
स्वपिति स वित पग हसे

*

इंतजार करिश्मा का
--रिता शिमोन (प्रथमवर्ष)

करिश्मा हिंदुस्तान का खैरियत है,
बरसात के दिनों में प्रकाश
गर्मियों में ठंडी हवा
दीवाली के दिन लक्ष्मी की कृपा
निहारना ताजमहल चाँदनी रात में
करना इंतजार अपने सनम का।
करिश्मा हंगरी का खैरियत है,
बरसात के दिनों में प्रकाश
गर्मियों में ठंडी हवा
क्रिसमस के दिन यीशु की कृपा
निहारना बुदापेश्त चाँदनी रात में
करना इंतजार अपने सनम का।

*

रात
--मिक्लोस रद्नोति
(अनुवाद- काती बोरेत्स्की) (प्रथमवर्ष)

हृदय सोता,
चिंता उसमें सोती,
मकड़ी का जाला दीवार पर,
पास उसके मच्छर सोता,
घर में है सन्नाटा,
जागा है चूहा
फिर भी नहीं है किच-किच भी,
बाग सोता
सोता पेड़ों का एक-एक भाग
तनों में सोते कठफोड़वे भी
छत्ते में मधुमक्खी सोती,
गुलाब में सोता काँटा
गेहूँ के दानों में सोती गर्मी
चाँद में सोती ज्वाला फैलाता शीतलता
पतझड़ आती चोरों सी चोरी करने निकल जाती।

*

मुझे पता नहीं
--मिक्लोश् रद्‌नोति

मुझे पता नहीं, इस देश का मूल्य दूसरे कैसे जानें,
मेरी जन्मभूमि है यह देहात जिसकी छाती से लौ
लगाती हैं, मेरे बचपन की दुनिया जो ढलकती है।
मेरा विकास इसके द्वारा हुआ जैसे अल्प डाल का तने से,
और आशान्वित हूँ कि लाश भी
इस मिट्टी में मिलाई जाएगी।
स्वदेश में हूँ। अगर कभी-कभार पौधे पैरों की ओर
मुड़ते हैं, मुझे उनके नाम भी, फूल भी मालूम होते हैं।
पता है रास्ते में कौन जाते हैं, वे कहाँ जाते हैं,
और यह भी जानता हूँ ग्रीष्म की संध्या में
क्या-क्या मान सकता है
वह हवेलियों की दीवारों से बहता हुआ सुर्ख वाला दुःख।
ऊपर जो उड़ता है उस के लिए एक नक्शा है यह देश,
यह तो, न जानेगा, वॊरॊश्मर्ति मिहाय कहाँ रहे थे।
उसे नक्शे में क्या मिलता है? कारख़ाना या क्रूर बैरक,
पर इस में मेरे लिए टिड्डे, बैल,
मीनार, शांत जागीर पड़ते हैं।
क्षण में वह सिर्फ़ कारख़ाने ही, दूरबीन में
वह ज़मीन देख सकता है;
मैं मज़दूर भी देख पाता हूँ जो थकता चला जाता है,
वन, फलों के बाग़, उन में गीत, अंगूर तथा समाधियाँ,
कब्रों के बीच चुपचाप रोती रहती छोटी सी दादी भी;
जो अकाश से रेल की सड़क है या टूटने वाला शिल्पगृह,
वह चौकी है. सामने निरीक्षक सूचना देते हुए खड़ा है,
लाल रंग का झंडा पकड़ रहा है, आस-पास अनेक बच्चेम,
कोठियों के आंगन में कुत्ता लोटकर खेलता रहता है।
देखो, पॉर्क में पुराने प्यारों के पदचिह्न पड़ते हैं,
मुँह में चुंबनों के मधु या करौंदे का स्वाद ले रहा हूँ।
जब मैं विद्यालय जाता था, तो पटरी की सीमा
पर मैंने एक
पत्थर पर पैर रखे, कि उस्ताद उस दिन मुझसे न पूछे,
यह पत्थर यहीं है, ऊपर से यह भी नहीं देख पाता,
यंत्र भी नहीं हैं जिनके द्वारा दिखाया जा सके।
हम लोग कसूरवार हैं – सच है –, एक से एक,
जैसे सभी जातियाँ,
तथा सब जानते हैं कि हम ने अपराध किये,
कब, कहाँ, कैसे;
पर यहाँ मज़दूर रहते हैं, तथा निरपराध कवि,
दूध पीते बच्चे जिनमें बुद्धि कभी तेज़ हो जाएगी,
मानो रोशनी हो, छिपकर धुँधले तलघरों में सँभालते हैं,
जब तक पुनः हमारी जन्मभूमि में शांति स्थापित होगी,
और हमारे धीमे शब्दों का अंतिम उत्तर वे ही दे देंगे।
अरे, हमें तेरे विशाल परों से आच्छादित करे, रात्रि का सावधान मेघ।
७ जनवरी १९४४(अनुवाद - शागी पेतर,सहयोग- प्रमोद कुमार शर्मा)

*

अहसास रंग-बिरंगा
--अन्ना शिमोन (प्रथमवर्ष)

घर की सफेद दीवारें
दीवान पर पीला तकिया
पुस्तकालय में संतरी कालीन
तिपाई पर भूरा फूलदान
फूलों से भरा लाल गुलमोहर
कमला की बैंगनी पोशाक
बैठक के नीले पर्दे
आँगन में हरी घास का लॉन
सुशीला के काले बाल,
सब कुछ रंग-बिरंगा,
अहा! मैं कितनी खुश हूँ।

*

शुल्लक्यौ (संस्कृत)
--तोर्दा बालाश

मोक्षम् सत्यात परिज्ञाय
मूर्खस सुख्यम् न नितस सो
ब्रह्मनस क्रूर प्राप्नोति
विद्याम कालीम नियोगः ही।

1 टिप्पणी:

  1. अपने नाम को चरितार्थ किया है, हिंदी को बढ़ावा मिलेगा,अच्छा प्रयास है

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