शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

भारत भ्रमण 2009

दाविद क्रिस्टी

हर वर्ष हमारे विश्वविद्यालय में हिंदी ज्ञान प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है। हर साल अलग अलग देशों में इस प्रतियोगिता के लिए प्रबंधक, यू के हिंदी समिति के द्वारा चार वर्ग बनाए गए हैं। प्रत्येक वर्ग में पुरस्कारों की व्यवस्था की गई है। प्रतिभाशाली वर्ग में जो विद्यार्थी जीतता है उसे भारत यात्रा पर जाने का पुरस्कार मिलता है। यू के हिंदी समिति आई सी सी आर के साथ केवल छात्रों के हवाई-जहाज़ के टिकट का ही बंदोबस्त नहीं करता बल्कि भारत में रहने के स्थान की व्यवस्था और खाना­पान का भी वे ही इंतजाम करते हैं। यह कार्यक्रम 2001 के अंत में शुरू हुआ था। पिछले 7 साल से लगातार चल रहा है। शुरूआत में इस प्रतियोगिता में शामिल होना सिर्फ़ ब्रिटैन के छात्रों के लिए संभव था पर समय चलते-चलते ही यह मौका योरोपीय विद्यार्थियों को मिलने लगा जो अपने-अपने देशों में हिंदी सीखते हैं। इस साल 5 देशों के दस विद्यार्थी भारत भ्रमण के लिए भारत बुलाए गए थे: ब्रिटैन से तीन, रूस से तीन, क्रोशिआ से एक, रोमानिया से दो छात्र, और हंगेरी से यह मौका मुझे ही मिला।

यह कार्यक्रम 19 अगस्त से 30 अगस्त तक चला। हमारा होटल पुरानी दिल्ली के प्रसिद्ध इलाक़े, करोल बाग में था। वहाँ सब तरह की दुकानें, रेस्तराँ थे, तो खरीदने के लिए सब चीज़ें वहाँ मिल रही थीं। पर भीड़ बहुत अधिक थी, लोग देर रात तक शोर मचाते थे।

इस कारण से शोर वाले इस इलाक़े के बीच होटल में हम से नहीं सोया गया। प्रबंधक हमें उत्तर भारत की सभी विशेष जगह दिखाना चाहते थे तो हमें हमेशा जल्दी उठना पड़ता था। मैं बहुत उत्तेजित थी कि मैं वे जगहें देखूँगी जिनके बारे में, मैं विनोद वाली किताब में पढ़ चुकी थी। लाल किला बहुत खूबसूरत है, वहाँ दीवान ए आम और दीवान ए खास बहुत मशहूर है, पर इनके अलावा लाल किले के बीचों बीच एक रत्न मंजूषा सी मस्जिद दिखाई देती है: मोती मस्जिद जो विशेष रूप से आकर्षक है। हम चाँदनी चौक भी गए। मैंने चाँदनी रात में तो उसकी शोभा नहीं देखी पर उसकी भीड़-भाड़ दिन में भी देखते ही बनती थी।

दिल्ली के अलावा हम अन्य विशेष जगहें देखने गए। हम ताज महल देखने आगरा गए, हरिद्वार में हमने गंगा में स्नान किया। गंगा देखने का मौका हरिद्वार के अलावा हमें एक और बार भी मिला, इलाहाबाद में। इस स्थान पर तीन नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन होता है। वहाँ हमने संगम की सही जगह पर नाव भी चलाई थी, जो हमारे लिए बहुत दिलचस्प था। इलाहाबाद से दूर नहीं अयोध्या, वह जगह, जहाँ महाराज राम ने शासन किया था। अयोध्या में हमने परंपरागत रामलीला देखी, और मैं सोचती हूँ कि हनुमान ज़रूर कभी वहाँ रहे होंगे क्योंकि बंदर होटल के आसपास भी थे।

हम भारत के मशहूर, रोचक स्थानों की यात्रा पर गए। मेरे लिए यात्रा की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि हम भारत के विभिन्न मुख्य नेताओं और साहित्य्कारों से मिले। दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित ने हमें अपने घर बुलाया और देहरादून में हमने उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियल से भेंट की। पोखरियाल नेता होने के साथ साथ हिंदी के प्रसिद्ध कवि भी हैं। हम कुछ साहित्यकार सम्मेलनों में भी गए। पर मेरी सबसे प्रिय मुलाक़ात इलाहाबाद में संपन्न हुई थी, जहाँ हम बूढ़े अमरखान के घर गए और उनसे बातचीत की।

मुझे हमेशा वे दिन याद आते हैं, दो हफ़्ते के लिए हम भारत में योरोप के यशस्वी व्यक्ति थे, हम सब सितारा देवी और तारा देव बने।

भारतीय शिक्षा

एवा वैरौनिका लोरिंत्स--

मैं बहुत खुश हूँ (हुई), जब मुझे पता (चला) है (था) कि मैं आगरा, हिंदी संस्थान में हिन्दी पढ सकती थी (हूँ)। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में बेहतर सब से (सबसे बेहतर) मैंने सोची (सोचा)।
केंद्रीय हिन्दी संस्थान आगरा क दो भाग हैं स्वदेशी और विदेशी छात्रों के लिए। 63 विदेशी छात्र- 26 देशों से थे। जैसे अफगानिस्तान, आर्मेनिया, इटली, इंडोनेशिया, गयाना, चीन, जापान, जॉर्जिया, ताजिकिस्तान, दक्षिण कोरिया, तुर्कमेनिस्तान, थाइलैंड, नीदरलैंड, फिजी, बुल्गारिया, बेलारूस, मंगोलिया, यूक्रेन, रोमानिया, रूस, लिथुआनिया, सूरीनाम, श्रीलंका, त्रिनिदाद और टोबैगो और हंगरी। विदेशी छात्रों के कक्षाओं के चार स्तर थे।
मेरी कक्षा में 30 लोग थे। हर दिन 4 हिन्दी अंतर थे-, मौखिक, लेखन, व्याकरण, और पाठावली। इसके अलावा मेरे लिए सुबह 7 से 9 तक योग एंव दोपहर में संगीत कक्षाएँ भी थीं। मुझे योग की कक्षा सबसे पसंद थी। शिक्षक और कर्मचारी बहुत अच्छे थे। वे मुझे सब कुछ करने में मदद करते थे। मुझे अपने छात्रावास के कमरे में बहुत अच्छा लगा। मैंने कमरे को फेंग शुई के आधार पर सजाया। मुझे संस्थान में सबसे अच्छा भोजन लगा। सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि मुझे भारतीय खाना बहुत पसंद है परन्तु क्योंकि मैं सब भोजन के बारे में अलग लड़कियों से बातचीत कर सकती थी। मैं भारत
संस्कृति के अलावा अलग अलग संस्कृतियों के लोगों से मिली। अवकाश के समय अपनी सहेलियों के साथ खाना खरीदी थी और घूमने चली जाती थी। मैं अपने परिवार और दोस्तों से इंटरनेट पर बातचीत और ईमेल करती थी। भारतीय लोग बहुत बहुत खुश होते थे जब मैं उनसे हिंदी में बात करती थी। अपन सहेलियों के साथ आगरा के बाहर भी यात्रा करती थी। मुझे भारत की विविध दुनिया बहुत पसंद आई।
भारतीय त्योहार मुझे भी बहुत अच्छे लगते थे। भारतीय त्योहारों को हम सभी स्वदेशी और विदेशी छात्रों मिलकर मनाते थे। त्योहारों पर मैं गाना भी गाती थी।
आगरा की गर्मी पसंद नहीं आई, मच्छरों और बुरी हवा की वजह से मैं बीमार हो गयी थी। इसके अलावा सब बहुत अच्छा था और हमें हर दिन कुछ नया सीखने को मिलता था।
अभी मैं अपने घर हंगरी में हूँ तो भारत मुझे याद आती है। अपनी तस्वीरों देखकर ही अपने अच्छे समय की याद आती है। भारत ने मुझे बदल गया है कि हर कोई मुझे देखने लगा है। मैं खुद को मजबूत, शांत और अधिक अनुभवी महसूस करती हूँ। यह मेरे जीवन का अब तक का सबसे अच्छा अनुभव था।

आगरा, जैसा मुझे लगा

दिनेश बिशोफ--

हाँ! आगरा वही जगह, जहाँ कितने छात्र–छात्राएँ गये थे। हाँ, मैं भी गया। आगरा। जब यह शब्द सुनते हैं लोग, क्या समझते हैं? कुछ लोग ताजमहल समझते हैं । जो लोग भारत के बारे में कुछ जानते हैं वे समझते है कि वह भारत की सबसे गंदी जगहों में से एक है, क्योंकि वे उत्तर प्रदेश और बिहार को गंदा समझते हैं। जो छात्र-छात्राएँ वहाँ गए, हाँ, वे संस्थान समझते हैं। और मेरा विचार?
यह कि आगरा गंदा है यह कोई गुप्त बात नहीं है। पर मुझे कोई बताएगा कि दुनिया में ऐसी कोई जगह है जहाँ जरा सी भी बुरी बात नहीं है। हर जगह में कुछ अच्छी बातें भी हैं और कुछ बुरी बातें भी। आगरा में कई अच्छी बातें हैं और कई बुरी। हाँ रास्ते तो बहुत ही गंदे है। लोग वहाँ जाते, जब उनको कुछ नहीं चाहिए, एक आईस क्रीम का कागज, एक प्लास्टिक गिलास, एक समाचार पत्र, तो तुरंत वहीं फेंकते है। कोई कचरे का डिब्बा कहीं नहीं है। इन कचरों को इकट्ठा करते हैं कहीं। जब बहुत ज्यादा इकट्ठा हो जाता है, जैसे कोई कचरे का टीला, तो उसे जला देते हैं। तब उसका गंदा धुआँ उड़ने लगता है। रोज कहीं न कहीं कुछ कचरा जलता है। जिससे सारा आगरा धुएँ से ढका होता है। इस धुएँ से साँस लेने में परेशानी होती है। आगरावासी लोग भी कभी-कभी अपनी नाक के आगे कुछ कपड़ा लगाते हैं, चाहे पैदल, स्कूटर से या रिक्शे से जाते हैं। जब विदेशी विद्यार्थी आते हैं, सबसे पहले उन्हें खाँसी आती है। कुछ लोग कमजोर हो जाते हैं, कुछ लोग बीमार। हालाँकि एक चीज है जिसका नाम मुलेठी है, वह खाँसी को भी खत्म करती है और नाक को भी साफ करती है, लेकिन कम लोग जानते हैं। इन समस्याओँ के अलावा लोगों की समस्याएँ भी होती हैं। भारतीय लोग विदेशियों को गौर से देखते हैं, गोरी महिलाओं को और भी गौर से, कभी-कभी उनके पीछेवाली पर मारते हैं, जिससे गोरियाँ नाराज हो जाती हैं। सब रिक्शावाले गोरों को देखकर दौड़ने लगते हैं और “यैस सर। ताजमहल। यैस। ओन्ली वान हांद्रद रुपये। यैस” ऐसे-ऐसे चिल्लाते हैं। इन लोगों से पीछा छुड़ाना बहुत मुश्किल होता है। जब सात-आठ महीनों तक यह सुनते हैं हम और हमेशा गलत पैसा माँगते हैं तो हाँ दिमाग इनसे थक जाता है, खराब हो जाता है।
और आदि-आदि, बहुत समय तक कह सकूँ आगरा की बुरी बातों को, लेकन अभी वहीं लिखूँगा, जो मेरी दृष्टि में अच्छी बातें लगती हैं। कहाँ से शुरु करूँ? संस्थान तो गंदा है, लेकिन उसके बिल्कुल सामने एक लोहार रहता है। उसका चेहरा। उसकी मूँछ। उसका कोई घर नहीं है। रास्ते में रहता है। उसकी पत्नी का चेहरा। आँखें। जैसे वे एक साथ लोहा मारते हैं। कितनी मुश्किल से कितना कम पैसा कमाते हैं। और ऐसे जीवन गुजारते हैं। आगे जाकर महेश जी का ढाबा है। वहाँ की चाय। उसका बेटा प्रसन्न, हम सोच सकते हैं कि वे गरीब लोग हैं तो निर्बुद्धि हैं। लेकिन यह सच नहीं है। हाँ, ये बहुत सरल जीवन जीते हैं। इनके पास न मोबिल फोन, न कंप्यूटर, न गाड़ी। लेकिन इनसे बात करके पता लगता है कि ये निर्बुद्धि नहीं हैं। पैसे के पीछे हमारी तरह से नहीं दौड़ते। वहाँ बैठते हम देखते हैं जब औरतें घड़ा लेकर आती हैं पानी लेने के लिए। कितनी चतुराई से रखती हैं अपने सिर पर उस भारी घड़े को। संस्थान के पीछे एक छोटा सा मंदिर है। वह जितना छोटा है उतना ही सुंदर है। अगर हम अंदर, आगरा में जाते हैं तो कितना ‘जूस बार’ मिलता हैं।
वहाँ का मैंगो जूस गरमियों में कितना अच्छा लगता है। भगवान के पास बेलगिरी का जूस मिलता है। कुछ आगे बहुत स्वादिष्ट पनीर दोसा और चॉकलैट शैक मिलता है।
रास्ते में बहुत जानवर होते हैं। बकरी, गधा, भैंस। मुझे सबसे प्यारे हैं भैंस और ऊँट। दोनों बहुत धीरे-धीरे चलते हैँ। जब किसी चौराहे को पार करते हैं तो सारी गाड़ियाँ रुक जाती हैँ। वे ऐसे जाते हैं जैसे कि उन्हें मालूम है कि जब तक वे चलते हैं, तब तक सारे रास्ते रुक जाते हैं। इसलिए कोई चिंता नहीं करके बिल्कुल धीरे जाते हैँ। मुझे लगता है कि ऊँट थोड़ा सा मुस्कराता भी है। हाँ! जो आगरा में जाता है इसे जरूर देख ले! ऊँट मुस्काराता है, इस बात पर।
आगरा के दूसरे कोने में रहते थे मेरे बाँसुरी गुरु। क्या बताऊँ? जब वे बाँसुरी बजाते हैं, उसके लिए कोई शब्द नहीं। उनकी बाँसुरी की मधुर आवाज। उनकी पत्नी। पत्नी का खाना। उनका बेटा और दो बिटियाँ। इन लोगों से मिलना।
और आखिर में संस्थान। यह, कि संस्थान में कुछ अध्यापक बेकार हैं? शायद। लेकिन कुछ अध्यापक इतने अच्छे हैं कि उसके बारे में बता नहीं सकता। एक अध्यापक तो इतने अच्छे हैं कि उनसे हम कुछ भी पूछ सकते हैं, वे उत्तर देते हैं। अगर कविताओं के बारे में पूछते हैं तो तुरंत याद से उन्हें सुनाते हैं और गाकर सुनाते हैं, और सुंदर से। इतने सुंदर से कि साहित्य में मुझे भी रुचि आयी।
कुल मिलाकर यह नहीं कह सकता कि आगरा अच्छा है, लेकिन यह भी नहीं कह सकता, कि बुरा है। आगरा बस आगरा है, और मैं खुश हूँ कि वहाँ जा सका था।

सितंबर के अंत में

शान्दोर पैतोफ़ि--

घाटी में घरेलू पुष्प अभी भी फूलते हैं,
पीपल खिड़की के सामने
हरे पत्तों से भरपूर है,
फिर जाड़ों को देख सकती है उधर?
बर्फ से पहाड़ी चोटी ढँकी जा चुकी है।
ज्वाला किरण गरमियाँ मेरे युवा दिल में
बसन्त की कोंपलें अभी भी बची हैं।
पर बाल मेरे, धूसर होने लगे अब,
जाड़ों के पाले ने सिर जकड़ लिया है।
मुरझाते हैं फूल, जीवन भाग जाता है,
अरी, प्रियवर मेरी गोद में आ बैठ जा।
तूने मेरी छाती से सिर टिका लिया है,
क्या कल गिरेगी मेरी समाधि पर?
ओ, बता दे - मरूँ तुझसे पहले,
लाश पर तो रो-रोके ओढ़ाएगी क़फ़न?
क्या किसी लड़के का प्रेम प्रेरित करेगा
ताकि नाम मेरा छोड़ दे उसके लिए?
यदि फेंक देगी कभी विधवा की ओढ़नी,
काले झंडे के रुप में, लटका मेरी क़ब्र पर,


में आ जाऊँगा मृतकों के अधम लोक से
और आधी रात को उसे ले लूँगा उधार,
कि मिटा सकूँ आँसू बहते,
तुम्हारे मेरी वजह से,
जो भूल गई होगी अपने सेवक को तुरंत,
बाँधूँ चोटों पर इस दिल की, तुझे
जो तब भी और वहाँ भी चाहेगा नित्य।

(अनुवाद-शागी पेतैर)

भारत में पहले अनुभव

शागी पेतैर--

आगरा पहुँचने के बाद दो हफ़्ते बीत गए हैं। सबसे पहले दिन मैंने सोचा था कि एक साल तक यहाँ रहना काफ़ी मुश्किल होगा। अभी भी यह सोच रचा हूँ, लेकिन क्यों? इसमें तो परिवर्तन हुआ।
मेरा पहला दिन बिलकुल कठोर था। यहाँ का वातावरण हंगेरी की तुलना में बहुत ज़्यादा गरम नहीं है, पर हवा में गीलापन अधिक है, इसलिए पसीना निकलता रहता है। रात को देनैश और मैं जल्दी से सोने गए क्योंकि बिजली चली गई थी। वह रात बिना पंखे और मच्छरदानी के, असह्य् और लम्बी लगी। इसके साथ अपने प्रियवरों को याद करता रहा। भविष्य में भी अवश्य किया करूँगा। अब मालूम है मुझे, विरह का क्या मतलब है। मैंने सोचा था कि एक वर्ष समय नहीं है, और मैं यहाँ इतना काम करनेवाला हूँ कि पता नहीं चलेगा कि समय बीतता है। यह सच नहीं है। स्कूल सिर्फ़ इस हफ़्ते से शुरू हो गया, इसी तरह पिछले दो सप्ताहों में बाज़ार जाने और अपना नया व्यक्तिगत क्षेत्र बनाने के अलावा मैंने बहुत कुछ नहीं किया था यानी एक दिन को दूसरे दिन से धीरे-धीरे पीछे करता रहा।
धोबी ढूँढ़ना परिश्रम था। डोल या बाल्टी का इस्तेमाल करके नहाना पहले से ज्ञात पद्धति से कम आरामदेह लग रहा है। स्वीकार कर चुका कि बिजली और पानी कभी-कभार चले जाते हैं। इसके सामने जो लगता है, हमेशा की परेशानी रहेगा, वह खाना है। हमारे यहाँ बार-बार सर्वश्रेष्ठ भारतीय भोजन बनाने और छात्रावास का आम खाना खाने में अंतर है। फ़िर अभी अच्छे अनुभव भी हो रहे हैं। छात्रावास में नए-नए दोस्त बन रहे हैं। वैसे मेरी पास अनेक योजनाएँ हैं कि इस वर्ष के दौरान किस-किस जगह को देखना होगा। आश्चर्य की बात है यहाँ कितनी विशेषताएँ हैं। इसलिए मैं सोचने लगा कि इस साल मेरा सबसे बड़ी परेशानी यह होगी कि सीखने-पढ़ने के अलावा ज़ंसकार (लद्दाख) से कांचीपुरम तक अधिक से अधिक देख लूँ। भारत के विभिन्न चेहरों से परिचित होकर हंगेरी लौटूँ। फ़िलहाल मैं महसूस कर सकता हूँ कि यहाँ मेरा स्वागत है।
सितंबर का अंत दूर नहीं है, यानी इसी समय एक ही कविता की याद हम सब स्वभावतः करते हैं। इसका हिंदी अनुवाद कुछ इस प्रकार है-

चीन में एक साल

इस्ताफी डेनियल--

मैंने पिछला साल चीन में बिताया। मुझे एक छात्रवृत्ति मिली थी, जिसमें सब कुछ था सफर, किताबों, जीवन के लिए पैसे, एक बहुत अच्छा कमरा और सबसे महत्वपूर्ण अध्यापन। मैं एक वूहान नाम वाले शहर में रहा था वूहान में एक करोड़ लोग रहते हैं। वूहान बुदापैश्त से पाँच गुना बड़ा है।
मैंने चीन में तीन काम किए। चीनी भाषा सीखी, बहुत यात्राएँ कीं और दोस्त बनाए। चीनी भाषा बहुत मुश्किल है, वूहान में एक उपभाषा बोली जाती है। एक साल के बाद भी मैं उपभाषा नही समझ पाया। पर हम स्कूल में मंडारिन सीखते थे। मेरे अध्यापक बहुत ही अच्छे थे। एक साल के बाद में कह सकता हूँ कि चीनी भाषा के प्रयोग में मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया है।
चीन संसार का तीसरा सबसे बड़ा देश है। यह हंगेरी से सौ गुना बड़ा है। देश में सब कुछ है। दुनिया की सबसे ठंडी जगहों से लेकर उष्णदेशीय द्वीपों तक, रेगिस्तान से जंगल तक, छोटे तिब्बती गाँवों से लेकर दुनिया के सबसे आधुनिक शहर तक.। हालाँकि दूरियाँ बहुत अधिक हैं। पर यातायात व्यवस्था बहुत ही अच्छी और आरामदेह है।
दोस्तों से मिलना हमेशा खुशी की बात है। चीन में मुझे मौका मिला कि दुनिया के अनेक देशों से आने वाले लोगों से मिल सका। मेरा एक पाकिस्तानी दोस्त भी था जिससे मैं हिंदी भाषा में बातचीत करता था।
मेरा पिछला साल मेरे जीवन का एक सबसे महत्वपूर्ण साल था। मैं जानता हूँ कि मैं जरूर किसी दिन चीन लौटूँगा।

सत्यजित राय और सार्वभैमिकवाद की कला, हमारी संस्कृति, उन की संस्कृति

सेमेरिच आग्नेश--

अमर्त्य सेन बैंगाली अर्थशास्त्री और दार्शनिक है। उन्हें 1998 में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनके अंशदान के लिए विश्व में सबसे बड़ा सम्मान, अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार मिला। उन्होंने सत्यजित राय की कला का संस्कृतियों की विविधता, उनके परस्पर संबंध और किसी समाज के गुणावगुणों की जटिलता पर उनके विचारों के नज़रिये से अन्वेषण किया है।
सत्यजित राय की रचनाएँ संस्कृतियों के बीच के संबंधों का विचारने योग्य सूक्ष्मदर्शी परजान उपस्थित करती हैं। उन के विचार वर्तमान दुनिया के बड़े सांस्कृतिक विवादों की तुलना में भी उपयुक्त हैं। राय की फ़िल्मों और लेखों में संस्कृतियों और उनके संबंधों के सामान्य विषयों के अन्वेषण उपलब्ध हैं। ये हैं अलग स्थानीय संस्कृतियों और उनके पृथकत्व के भेद का महत्त्व, हर एक स्थानीय संस्कृति के विविध स्वभाव के परिजान की आवश्यक्ता, अंतरसांस्कृतिक संचार और उसे सख़्त काम बनाने वाली बाधाओं के पहचान की बड़ी ज़रूरत। विशेषकता की तरफ़ गहरा सम्मान, अंदरूनी विविधता की पहचान और विशुद्ध संचार की ज़रूरत की समझ, सब राय की दृष्टि में शामिल है।
राय हर संस्कृति के अलगाव का सम्मान करने पर ज़ोर देते समय भी बाहरी दुनिया के लिए दरवाज़ा बंद करने का कोई भी कारण नहीं देखते थे। वास्तव में दरवाज़ा खोलना ही राय के काम में महत्त्वपूर्ण प्रथमता थी। भारतीय संस्कृति को रुढ़िवादी तरह देखने और पश्चिमी सोच-विचार से सुरक्षित करने की बढ़ती प्रवृत्ति के मुक़ाबले वे किसी संस्कृति के भी विचार, कला या जीवन शैली से सीखने को तैयार थे। राष्ट्र को समुदायों में बाँटकर उस स्थिति में मृत रुकने की इच्छा करते हैं धार्मिक और लैकिक समुदायवादियों के बावजूद स्थानीय समुदायों की अंदरूणी विविधता के महत्त्व को बहुत मानते थे।
राय सांस्कृतिक सीमाओं के पार के संचार की सम्भाव्यता में संस्कृतियों की भिन्नता से उत्पन्न समस्याओं पर भी विचार करते थे। हमारी फ़िल्में, उन की फ़िल्में में लिखते हैं कि फ़िल्में हर तरह के स्वदेशी गुणों से रंग प्राप्त करती हैं, और प्रश्न उठाते हैं, एक विदेशी गुण के सिर्फ़ अनिपुण जान की सहायता से कोई उसे कैसे महसूस कर सकता है। अंतरसांस्कृतिक संचार की जटिलताओं को समझकर और स्वीकार करके भी राय संस्कृतियों के अंदर के परिज्ञान को असम्भव नहीं, ज़्यादा एक तरह की चुनौती को मानते थे। अलग संस्कृतियों के अंदर के संचार की सम्भाव्यता के अलावा सांस्कृतिक फ़र्कों की उपस्थिति आजकल उस प्रश्न को भी सामने लाती है कि दुनिया लगातर छोटी और एकसमान हो जाने पर संस्कृतियों के अलगाव का कैसे सम्मान किया जा सकता है और मोल लगाया जा सकता है।
संस्कृतियों का अलगाव आजकल एक प्रिय विषय है, और संस्कृतियों के समानीकरण के – विशेष तरह से पश्चिमी शैली के या आधुनिकता के कपटपूर्ण रूप में - अभिप्राय की तीव्र चुनौती मिली। राय एक विशेष सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के महत्त्व का ध्यान बिना इससे इनकार किए, जो दूसरी जगह से सिखा जा सकता है, करना चाहते थे। इस विवेचनात्मक खुलेपन में बड़ी बुद्धि है – दूसरी जगहों से, विचारों के हमलों से डरती दुनिया के बावजूद एक गत्यात्मक अनुकुलनशील दुनिया है। सांस्कृतिक सीमाओं के पार के प्रतिज्ञा की समस्याएँ कला के सभी प्रकारों पर प्रभाव डालती हैं, लेकिन फ़िल्म पर, साहित्य से शायद कम प्रभाव पड़ता है, क्योंकि फ़िल्म भाषा पर उतनी अवलम्बित नहीं है। फिर भी, जैसे राय उल्लेख करते थे, चेष्टा और क्रिया भी प्रतिक्रिया और अप्रतिक्रिया के दैनंदिन अनुभव से उत्पन्न प्रतिरूप से ढाली जाती हैं। शब्दों का सीधे सूचना व्यक्ति करने के अलावा भी प्रकार्य है। भाषा की आवाज़, शब्दों का ख़ास चुनाव विशेष प्रभाव या अर्थ पहुँचाता है। राय भी मानते थे कि भाषा का कथन के प्रकार्य के अलावा रूप देने वाला प्रकार्य भी था और बिना भाषा जाने और अच्छी तरह जानने के बिना बहुत कुछ खाली जाता है। राय उनमें महत्त्वपूर्ण भेद करते थे कि किसी सांस्कृतिक विभाजन के पार बात करते समय क्या समझने योग्य है और क्या नहीं। उन्होंने अपने ‘एक बैंगाली फ़िल्म निर्माता की समस्याएँ’’ नामक लेख में कहा कि भारत विदेश के पूर्व के बारे में कुतूहल से फ़ायदा उठा सकता है, लेकिन झूठा एग्ज़ोटिक की दलाली और उपस्थित किस्सों के पोषण करने के स्थान पर – जो शायद ज़्यादा आसान दिखाई देता है – भारतीय देश और लोगों के विषय में अनेक ख्यालों का नाश करना है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध और सफल मनोरंजक मूवीज़ के मुक़ाबले में - जो सामाजिक पहचान कि दृष्टि को दूर करके एक अनुपस्थित समाज का पेश करती हैं और खलनायक की उपस्थिति की सहायता से दर्शकों के लिए तैयार स्पष्टीकरण के आराम प्रस्तुत करती हैं – राय उन सामाजिक स्थितियों को दिखाने को तरजीह करते हैं जो दुखान्त घटनाओं से बचने को मुश्किल करती हैं। उन की फ़िल्मों में खलनायक दिखाई पड़ता है, उस की भी सभी अन्य जटिल और विभिन्न पात्रों जैसे मानव विशेषताएँ हैं।
सांस्कृतिक विविधता के महत्त्व का ध्यान रखना सही है, लेकिन पश्चिम और पूर्व के विभाजन के एकत्रीकरण के रूप में देखना प्रकट करने की जगह ज़्यादा छिपा रहता है। भारत के एक एक धार्मिक समुदाय – हिंदु या मुसलमान – या भाषा समूह के बारे में भी सामान्यीकरण बहुत भटकानेवाला हो सकता है। शायद लोगों के देश के अलग भागों या विदेश में रहने वाले समूहों के अंदर इन से अधिक महत्त्व की सदृश्यता उपस्थित है जिसे किसी भेद पर ज़ोर देने और अन्यों पर ध्यान न रखने की आजकल की प्रवृत्ति चूकती है। संस्कृतियों के पार के संचार की समस्याएँ सच हैं, लेकिन इसलिए हमारी संस्कृति और उनकी संस्कृति के मानक विभाजन को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। जैसे पूरी तरह से भारतीय शांतिनिकेतन की मानसिकता और इटेलियन फ़िल्म निर्माता डै सीका की कला को समान रूप से अपनाते सत्यजित राय का उदाहरण दिखाई देता है। विविधता और खुलेपन में भारत की लज्जा नहीं गौरव है, जिस की शिक्षा सत्यजित राय ने दी है।
सत्यजित राय और सार्वभैमिकवाद की कला,
हमारी संस्कृति, उन की संस्कृति सेमेरिच आग्नेश
अमर्त्य सेन बैंगाली अर्थशास्त्री और दार्शनिक है। उन्हें 1998 में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनके अंशदान के लिए विश्व में सबसे बड़ा सम्मान, अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार मिला। उन्होंने सत्यजित राय की कला का संस्कृतियों की विविधता, उनके परस्पर संबंध और किसी समाज के गुणावगुणों की जटिलता पर उनके विचारों के नज़रिये से अन्वेषण किया है।
सत्यजित राय की रचनाएँ संस्कृतियों के बीच के संबंधों का विचारने योग्य सूक्ष्मदर्शी परजान उपस्थित करती हैं। उन के विचार वर्तमान दुनिया के बड़े सांस्कृतिक विवादों की तुलना में भी उपयुक्त हैं। राय की फ़िल्मों और लेखों में संस्कृतियों और उनके संबंधों के सामान्य विषयों के अन्वेषण उपलब्ध हैं। ये हैं अलग स्थानीय संस्कृतियों और उनके पृथकत्व के भेद का महत्त्व, हर एक स्थानीय संस्कृति के विविध स्वभाव के परिजान की आवश्यक्ता, अंतरसांस्कृतिक संचार और उसे सख़्त काम बनाने वाली बाधाओं के पहचान की बड़ी ज़रूरत। विशेषकता की तरफ़ गहरा सम्मान, अंदरूनी विविधता की पहचान और विशुद्ध संचार की ज़रूरत की समझ, सब राय की दृष्टि में शामिल है।
राय हर संस्कृति के अलगाव का सम्मान करने पर ज़ोर देते समय भी बाहरी दुनिया के लिए दरवाज़ा बंद करने का कोई भी कारण नहीं देखते थे। वास्तव में दरवाज़ा खोलना ही राय के काम में महत्त्वपूर्ण प्रथमता थी। भारतीय संस्कृति को रुढ़िवादी तरह देखने और पश्चिमी सोच-विचार से सुरक्षित करने की बढ़ती प्रवृत्ति के मुक़ाबले वे किसी संस्कृति के भी विचार, कला या जीवन शैली से सीखने को तैयार थे। राष्ट्र को समुदायों में बाँटकर उस स्थिति में मृत रुकने की इच्छा करते हैं धार्मिक और लैकिक समुदायवादियों के बावजूद स्थानीय समुदायों की अंदरूणी विविधता के महत्त्व को बहुत मानते थे।
राय सांस्कृतिक सीमाओं के पार के संचार की सम्भाव्यता में संस्कृतियों की भिन्नता से उत्पन्न समस्याओं पर भी विचार करते थे। हमारी फ़िल्में, उन की फ़िल्में में लिखते हैं कि फ़िल्में हर तरह के स्वदेशी गुणों से रंग प्राप्त करती हैं, और प्रश्न उठाते हैं, एक विदेशी गुण के सिर्फ़ अनिपुण जान की सहायता से कोई उसे कैसे महसूस कर सकता है। अंतरसांस्कृतिक संचार की जटिलताओं को समझकर और स्वीकार करके भी राय संस्कृतियों के अंदर के परिज्ञान को असम्भव नहीं, ज़्यादा एक तरह की चुनौती को मानते थे। अलग संस्कृतियों के अंदर के संचार की सम्भाव्यता के अलावा सांस्कृतिक फ़र्कों की उपस्थिति आजकल उस प्रश्न को भी सामने लाती है कि दुनिया लगातर छोटी और एकसमान हो जाने पर संस्कृतियों के अलगाव का कैसे सम्मान किया जा सकता है और मोल लगाया जा सकता है।
संस्कृतियों का अलगाव आजकल एक प्रिय विषय है, और संस्कृतियों के समानीकरण के – विशेष तरह से पश्चिमी शैली के या आधुनिकता के कपटपूर्ण रूप में - अभिप्राय की तीव्र चुनौती मिली। राय एक विशेष सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के महत्त्व का ध्यान बिना इससे इनकार किए, जो दूसरी जगह से सिखा जा सकता है, करना चाहते थे। इस विवेचनात्मक खुलेपन में बड़ी बुद्धि है – दूसरी जगहों से, विचारों के हमलों से डरती दुनिया के बावजूद एक गत्यात्मक अनुकुलनशील दुनिया है। सांस्कृतिक सीमाओं के पार के प्रतिज्ञा की समस्याएँ कला के सभी प्रकारों पर प्रभाव डालती हैं, लेकिन फ़िल्म पर, साहित्य से शायद कम प्रभाव पड़ता है, क्योंकि फ़िल्म भाषा पर उतनी अवलम्बित नहीं है। फिर भी, जैसे राय उल्लेख करते थे, चेष्टा और क्रिया भी प्रतिक्रिया और अप्रतिक्रिया के दैनंदिन अनुभव से उत्पन्न प्रतिरूप से ढाली जाती हैं। शब्दों का सीधे सूचना व्यक्ति करने के अलावा भी प्रकार्य है। भाषा की आवाज़, शब्दों का ख़ास चुनाव विशेष प्रभाव या अर्थ पहुँचाता है। राय भी मानते थे कि भाषा का कथन के प्रकार्य के अलावा रूप देने वाला प्रकार्य भी था और बिना भाषा जाने और अच्छी तरह जानने के बिना बहुत कुछ खाली जाता है। राय उनमें महत्त्वपूर्ण भेद करते थे कि किसी सांस्कृतिक विभाजन के पार बात करते समय क्या समझने योग्य है और क्या नहीं। उन्होंने अपने ‘एक बैंगाली फ़िल्म निर्माता की समस्याएँ’’ नामक लेख में कहा कि भारत विदेश के पूर्व के बारे में कुतूहल से फ़ायदा उठा सकता है, लेकिन झूठा एग्ज़ोटिक की दलाली और उपस्थित किस्सों के पोषण करने के स्थान पर – जो शायद ज़्यादा आसान दिखाई देता है – भारतीय देश और लोगों के विषय में अनेक ख्यालों का नाश करना है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध और सफल मनोरंजक मूवीज़ के मुक़ाबले में - जो सामाजिक पहचान कि दृष्टि को दूर करके एक अनुपस्थित समाज का पेश करती हैं और खलनायक की उपस्थिति की सहायता से दर्शकों के लिए तैयार स्पष्टीकरण के आराम प्रस्तुत करती हैं – राय उन सामाजिक स्थितियों को दिखाने को तरजीह करते हैं जो दुखान्त घटनाओं से बचने को मुश्किल करती हैं। उन की फ़िल्मों में खलनायक दिखाई पड़ता है, उस की भी सभी अन्य जटिल और विभिन्न पात्रों जैसे मानव विशेषताएँ हैं।
सांस्कृतिक विविधता के महत्त्व का ध्यान रखना सही है, लेकिन पश्चिम और पूर्व के विभाजन के एकत्रीकरण के रूप में देखना प्रकट करने की जगह ज़्यादा छिपा रहता है। भारत के एक एक धार्मिक समुदाय – हिंदु या मुसलमान – या भाषा समूह के बारे में भी सामान्यीकरण बहुत भटकानेवाला हो सकता है। शायद लोगों के देश के अलग भागों या विदेश में रहने वाले समूहों के अंदर इन से अधिक महत्त्व की सदृश्यता उपस्थित है जिसे किसी भेद पर ज़ोर देने और अन्यों पर ध्यान न रखने की आजकल की प्रवृत्ति चूकती है। संस्कृतियों के पार के संचार की समस्याएँ सच हैं, लेकिन इसलिए हमारी संस्कृति और उनकी संस्कृति के मानक विभाजन को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। जैसे पूरी तरह से भारतीय शांतिनिकेतन की मानसिकता और इटेलियन फ़िल्म निर्माता डै सीका की कला को समान रूप से अपनाते सत्यजित राय का उदाहरण दिखाई देता है। विविधता और खुलेपन में भारत की लज्जा नहीं गौरव है, जिस की शिक्षा सत्यजित राय ने दी है।

उस्ताद अली अकबर खाँ

बोल्दीस्तर कोरोशी--
बदकिस्मती से इस जून में शास्त्रीय संगीत के एक महत्वपूर्ण गुरू का स्वर्गवास हुआ। अली अकबर खाँ सरोद के सबसे उच्च कोटि के उस्ताद थे।
वे चार साल के थे जब उन्होंने शास्त्रीय संगीत की पढ़ाई शुरु की। उनके पिताजी और गुरू बीसवीं शताब्दी के विशालतम गुरू और मैहर घराना के प्रवर्त्तक थे। उनके शिष्यो में से सब प्रसिद्ध कलाकार हो गए। उदाहरण के लिए रविशंकर और निखिल बनर्जी।
अली अकबर खाँ तेईस वर्ष की आयु में पहली बार भारत छोड़ा और कैलिफोर्निया में कन्सर्ट दिया। उस समय वे पूरे भारत में प्रसिद्ध थे, इसके बाद विश्व में लोकप्रिय हो गए।
चौवालीस वर्ष की आयु में खाँ साहिब ने “अली अकबर संगीत विद्यालय” की स्थापना की। यह पहला स्कूल है जो भारत में ही नहीं अमरीका में भी स्थायी है।
वे अपने जीवन के अंतिम चार दशक कैलिफोर्निया में रहे और तबलची स्वप्न चौधुरी के साथ अपना स्कूल चलाया।
पूरे जीवन में उस्ताद अली अकबर खाँ ने बहुत काम किया कि शास्त्रीय संगीत सारे लोक में लोकप्रिय हो।
उनकी मृत्यु सब लोगों के लिए बड़ा घाटा है।

सूचना-केंद्र

इस्तवान ओर्लेन्य-- (अनुवाद विराग काटालीन)--

चौदह साल वह फाटक के पास वाले दफ्तर में एक छोटी सी खिड़की की दूसरी ओर बैठता है। उससे केवल दो प्रश्न किए जाते हैः-
मॉन्टेक्स का दफ्तर कहाँ है?
वह जबाव देता हैः-
पहली मंजिल, बाईँ ओर।
रुग्यंता नामक कूड़ा –करकट रिसायक्लिंग कंपनी कहाँ है?
जिसका जबाव वह देता हैः-
दूसरी मंजिल दाईँ ओर, दूसरा दरवाजा।
चौदह साल के दौरान वह कभी नहीं भूला है, सब लोगों को जरूरी सूचना मिली है। सिर्फ एक बार ऐसा हुआ कि उसकी खिड़की पर एक महिला ने खड़ी होकर आम प्रश्नों में से एक कियाः-
कृपया बताइए, मॉन्टेक्स कहाँ है?
पर इस बार उसने दूर से देखकर कहाः विषैले।
हम सब शून्य से आए हैं और उसी सड़ेले शून्य में वापस चले जाएँगे।
महिला ने शिकायत की। शिकायत की जाँच हुई। चर्चा-परिचर्चा हुई। इसके बाद जाँच खत्म हुई।
हाँ, निस्संदेह रूप से कोई बड़ी बात बिल्कुल नहीं है।

हाथी और जहरीला डार्ट मेंढक

अन्ना शिमोन--

जंगल में एक हाथी घूम रहा था। वह गंगा नदी का पानी पी रहा था। तभी एक जहरीला डार्ट मेंढक पानी में कूदा। उसने हाथी से पूछाः- क्या हम दोस्त हो सकते हैं \
हाथी ने उत्तर दियाः- नहीं, हम दोस्त नहीं होंगे, क्योंकि तुम खतरनाक हो और मुझे तुमसे डर लगता है।
इसके बाद हाथी ने मेंढक को अकेला छोड़ा।
मेंढक बहुत उदास हो गया।
हाथी अगले दिन भी उसी तरह आराम से गंगा नदी के तट पर पानी पी रहा था। उसे पानी में एक घड़ियाल दिखाई पड़ा, उसने हाथी को खाना चाहा। पर अचानक मेंढक आ गया क्योंकि उसने देखा कि हाथी खतरे में है, उसने घड़ियाल से कहाः-
अगर तू नहीं जाएगा तो में तुझे काटूँगा।
घड़ियाल दूर हो गया और हाथी बच गया।
उसने मेंढक को धन्यवाद बोला और उससे पूछाः- क्या हम दोस्त होंगे?

कविताएँ

जीवन कितना सुंदर
इव मुद्रा
सर्द सोता, घना जंगल, बर्फ ढँकी चोटियाँ- कितनी चमकदार
करो कल्पना,
दिख जाएगा तुरंत प्रकाश,
खोलो आत्मा के द्वार,
रोचक है सारा जहाँ।
धरती के कण-कण में छिपा रहस्य
रहे हैं लोग अब तक जहाँ।
दुर्भाग्य-सौभाग्य
सुखी थे हमारे पूर्वज,
ज्ञात है कुछ के बारे में हमें,
पर रह गए हैं लाखों नामहीन, अज्ञात।
गहरी गुफाएँ, भयानक जंगल,
नदी और सागर गूँजते हैं,
सागर किनारे खड़ा अकेला दीपघर।
सूरज की गर्मी में या
बर्फ के सर्द पहाड़ों के बीच,
बुद्धि और परिश्रम से निकलता है रास्ता।
हर जन्म होता है नई शुरुआत,



जगती हैं नई आशाएँ,
उगते हैं नए विश्वास
खोजते हैं सब सौभाग्य।
सृजन का तप,
आने वाले कल के सुंदर होने का विश्वास,
जल रहा दीप निरंतर।
जीवन है सुंदर, सब कुछ ही है जीवन,
न हो धन-धान्य, न मिले प्रतिष्ठा,
न हो कुछ भी पास तुम्हारे,
पर जीवन,
यही तो सच्चा खज़ाना है।
मनोभाव, काम और इच्छा,
ये ही करते सार्थक तेरा जीवन।
धरती अपने गर्भ में रखती अपने रहस्य,
करती है इंतजार,
जानो-पहचानो इसके असीम रहस्य को।
जीवन है सुंदर,
जीवन है सब कुछ।
जब तक रहेगा अस्तित्व मानव का,
यह अटूट शृंखला,
जोड़ती है मन से मन को,
दो यह ज्ञान विश्व को तुम,
जीवन है सुंदर,
जीवन है सब कुछ।
कहेंगे लोग तुम्हें
क्या है पास तुम्हारे?
पर जानते हो तुम
संसार का सबसे अनमोल खज़ाना
जीवन।
(एक हंगारी गीत “अज़ इलेत शेप” का हिंदी अनुवाद, सहयोग-प्रमोद कुमार)
वर्षा का गीत
वसिल मिंतशेव

अब शीतकाल में
पेड़ों की टहनियों पर
तेरी बांहों में
तेरा नाम हिम में लिख रहा हूँ,
वसंत आयेगा तत्काल
हिम पिघलेगी,
व्योम में उड़ेगी,
ग्रीष्म ऋतु जब आएगी
वर्षा, तेरा ही नाम गाएगी।

ह्यूज लॉरीः द गन सैल्लैर

अत्तिला सबो--
द गन सैल्लैर ह्यूज लॉरी की पहली किताब का नाम है। ह्यूज लॉरी अंगरेजी अभिनेता, लेखक और गवैया हैं। वे ग्यारह जून, उन्नीस सौ उनसठ को पैदा हुए। वे ऑक्सफॉर्ड में पैदा हुए थे। उन्होंने कई फिल्मों और टी. वी. सीरियल्स में अभिनय किया। उनका सबसे प्रसिद्ध सीरियल का नाम हाउस है जो अमेरिकी मेडिकल ड्रामा है। इस ड्रामे में लॉरी एक डॉक्टर का अभिनय करते हैं जिसका नाम डॉक्टर ग्रेगरी हाउस है। ह्यूज लॉरी ने अपनी किताब उन्नीस सौ छियानवे में लिखी थी। “द गन सैल्लैर” रोमांचक और सनसनीखेज अपराध उपन्यास है। किताब की कहानी का मुख्य पात्र सैनिक है जिसका नाम टॉमस लांग है। ह्यूज लॉरी की शैली बहुत विशेष है। उनकी किताब बड़ी रोचक, सरस, मनोरंजक और हँसी मजाक वाली है। ह्यूज लॉरी बहुत ज्ञानी लेखक हैं। “द गान सैल्लैर” 1996 की सबसे अधिक बिकनेवाली किताब थी।

स्पेन का कैनारी द्वीप समूह

लेवार्दी अनीता--

कैनारी द्वीप समूह स्पेन का भाग है। स्पेन यूरोप का एक देश है। इसकी राजधानी मैड्रिड है जो सबसे बड़ा नगर भी है। स्पेन की राजभाषा स्पेनिश है। स्पेन जनवरी 1986 से यूरोपीय संघ का सदस्य है। इसकी मुद्रा यूरो है। इस देश में राजा भी है।
कैनारी द्वीप स्पेन का स्वायत्त भाग है। कैनारी द्वीप तेरह द्वीपों का समूह है। सात बड़े द्वीप हैं और छह छोटे। छोटे द्वीपों पर लोग नहीं रहते। ये सभी ज्वालामुखी वाले द्वीप हैं। सबसे बड़े द्वीपों के नाम तैनैरिफ्फै और ग्रन कैनरिया है। इन दो द्वीपों पर लगभग एक हजार लोग रहते हैं। यह द्वीप अफ्रीका से 300 किलोमीटर दूर है। इन द्वीपों पर लाखों पर्यटक आते हैं। वे वहाँ समुद्र तट पर टहलने आते हैं, आराम करते हैं, तैरते है, समुद्र तट पर धूप सेंकते हैं, आइसक्रीम खाते हैं, छाया में बैठते हैं, मछलियाँ पकड़ते हैं, सीपियाँ जम करते हैं, जहाज़ से दूसरे द्वीपों पर जाते है, पहाड़ी चट्टानों पर घूमते हैं, जहाज़ से समुद्री जीवों को देखते हैं, इसी तरह के अनेक कार्य करते हैं।
प्रकृति यहाँ बहुत ही सुंदर है, पत्थर ही पत्थर हैं। इसके अलावा वहाँ ऐतिहासिक महत्व की इमारतें, चर्च आदि भी हैं। यहाँ बड़े बंदरगाह भी हैं।
मैं एक बार तैनैरिफ्फे द्वीप पर गई थी। मुझे यह जगह सबसे सुंदर लगती है।

सागरमथा की यात्रा

हिदाश गैर्गेय--

हिमालय पर्वतमाला की सब से ऊँची कोटि सागरमथा है: ८८५० मीटर। दुनिया में इससे और ऊँचा पर्वत नहीं मिलता। ऐसा माना जाता है कि जब क्षीरसागर का मंथन हो रहा था, देवासुर इस पर्वत का प्रयोग किया था अमृत पाने के लिए । इसी कारण इसका नाम सागरमथा है। आजकल सागरमथा नेपाल में है और इसका प्रचालित नाम माउंट एवरेस्ट है। एवरेस्ट एक अँगरेज़ का नाम है जो १९ वीं शताब्दी में काफी समय भारत में रहे थे और भूविज्ञानी थे। इस अप्रैल में, मैं चार लोगों के साथ नेपाल में घूमा था और चार दिन सागरमथा नेशनल पार्क में बिताया था। .

काठमांडू से हम लोग हवाई जहाज़ से लुक्ला गाँव पहुँचें जो २८०० मीटर पर है । यह दुनिया का सबसे सुन्दर और सब से खतरनाक एअरपोर्ट है। पहुँचने के बाद हमको दो दिन लगे पैदल नाम्चे बाज़ार गाँव जाने के लिए। रास्ते में हम एक रात एक छोटे गाव में सोए। दूसरे दिन शाम को हम नाम्चे पहुंचें। यह गाँव लगभग ४००० मीटर पर स्थित है और सागरमथा पर्वत से सबसे नजदीक गाँव है। अप्रैल में काठमांडू में गर्मियों है, पर नाम्चे में बरफ भी पड़ सकती है। वहाँ गरम कपड़ों की बिल्कुल ज़रूरत है। नाम्चे से ऊपर एक छोटा पर्वत है, जहाँ से साफ मौसम में सागरमथा बहुत सुन्दर दिखाई देता है। हम सुबह ६ बजे उठते और एक घंटे के बाद वहाँ पहुँचें। भूमि पर चारों ओर बरफ थी पर बहुत धूप आई। हम को दर्शन मिला: सागरमथा बिलकुल स्पष्ट दिखाई दे रहा था। उस दिन हम नाम्चे के आसपास बहुत घूमे और एक छोटा गाँव गए जहाँ एक सुन्दर बौद्ध-मंदिर है। उस इलाके में बहुत याक नामक जानवर भी मिलते है जो गाय जैसा होता है। पर्वतीय लोग याक का प्रयोग करते हैं सामान लेने और दूध पाने के लिए। अंतिम दिन उठने के बाद हम लगभग २५ किलोमीटर गए और शाम को फिर लुक्ला पहुँचें। हम लोग रात वहाँ बिताई और सुबह सवेरे हवाई जहाज़ से काठमांडू वापस उडे। सगरमाथा की यात्रा पूरी हो गयी थी पर याद हमेशा आएगी।

नुकसान

--वेरोनिका

तुम गायब हो गये हो, मैं विश्वास नहीं कर पाती! कल तुम मेरे पास थे और आज ।।। मेरा जीवन सर्वथा बदल गया, क्यों? तुमने मुझे क्यों ऐसे छोड़ दिया, ऐसा क्रूर, तुम्हारी अपनी खबर दिए बिना, अब तुम गायब हो, और यह शोकपूर्ण मोड़ मेरी अपनी गलती के कारण आया। मेरी अपनी लापरवाही से।
मैं आज तक समझ नहीं पायी, कितनी बड़ी कीमत तुम थे। तुम हमेशा मेरे पास रहते थे, हर सुबह जब मेरी आँखें खुलतीं, सब से पहले तुम नज़र में आते थे। हर रोज़ हजारों बार मैं तुम्हारी ओर देखती थी, हर पल तुम मेरे साथ रहते थे, पर मैंने एक बार भी सोचा कि तुम कितने अहम् हो। जब मैंने तुम को पहली बार देखा था, तुरन्त तुम्हारी खूबसूरती और सक्षमता मेरा नज़रों को भा गई। लेकिन समय बीतते-बीतते हमारा संपर्क मामूली हुआ। तुमने लगातार मेरी सहायता की, मुझे अकेला कभी नहीं छोड़ा, परन्तु जब तुम दिन भर मेरी इच्छाएँ पूरी करते-करते थक जाते थे तो मैं नाराज़ हो जाती थी।
तुमने न सिर्फ मेरी मदद की, बल्कि मेरा रोजमर्रा का जीवन भी चलाया, तुमने मुझे खुश किया। आज तुमने मेरा दिल तोड़ दिया, मेरा जीवन तबाह कर दिया। जब से तुम खोए हो, मेर जीवन से दूर चले गए हो, मैं घर पर ही बैठी हूँ। मुझे पता नहीं कब कितने बजते हैं या आज कौन सा दिन है। तुम्हारे जाने से बाकी लोगों से मेरे सम्बन्ध भी ख़त्म हो गए। मैं अपने माँ के साथ भी बात नहीं कर पाती। मैं भूल गयी हूँ कि कौन-कौन सी इम्पोर्टेन्ट मीटिंग हैं, कब मुझे उठना है आदि-आदि। बार-बार मुझे लगता है, कि तुम्हरा मेरे जीवन से जाना सिर्फ एक भयानक ख्वाब है। अब मैं हरदम तुम को ही खोजा करती हूँ, यहाँ-वहाँ लेकिन इसका फायदा नहीं हो रहा। तुम्हारे बिना का दर्द असह्य है। अब मैंने समझ लिया है कि मैं तुम्हारी दासी हूँ, तुम्हारे अधीन हूँ।
शायद तुम्हें याद हो मेरे प्यारे-प्यारे मोबाइल फ़ोन।

चूहा-उद-दिन


--क्रिस्तियान

आज सुबेरे एक रोचक मुलाक़ात मेरी याद में आई। कुछ हफ्तों पहले बाज़ार में घूमते घूमते मैंने एक मोटर की ओट में दो छोटे-छोटे चूहे देखे थे। इसीलिए मैंने उनकी ओर ध्यान दिया, क्योंकि सहसा मैंने सुना की ये ही चूहे बातचीत भी करते थे।
- हाँ ज़रूर केला, अंगूर, खीरा, कंदमूल, सेम की फ़ली आदि सब कुछ मिलता है बिना कठिनाई के। लेकिन …
- और कंद भी, और गाजर और शलजम भी!
- हाँ हाँ। पर, सुनिए, बड़े मैदान में मेरा एक दोस्त था जो एक चूहेश्वर देव से अति प्रेरित कवि था, एक अच्छा शायर, जिसका तखल्लुस मतलब कविनाम चूहा-उद-दिन था। उसकी एक कविता सुनिए –
चुहू चुहू चुक्कु छु…
चुहू चुहू चुक्कु छु…
......................
- क्या बक रहे हो?
- बस सुनिए! मेरा दोस्त चूहा-उद-दिन बहुत खाना नहीं खाता था। उसको खाने के स्वाद और महक से देव दुआ और प्रार्थना अच्छी लगती थी।
- आश्चर्य की बात है!
- एक दिन गुफा से निकलकर हवा से उड़ते हुए किसी अखबार के टुकड़े में वह दिन के एक समाचार पढ़ बैठा।
-कुपोषण के बारे में पढ़ा, आरोप और कैद, सरकार की वीरान जगह के बारे में, वगैरह-वगैरह। चूहा-उद-दिन का दिल इतना दहल गया, कि पहले दिन थोड़ा सा ही भोजन खाने के कारण बीमार हो गया।
- हे चूहेश्वर!
- दो दिन बाद एक चुलबुली लड़की ने आकर गुफा में अपनी गेंद खोजी। गेंद के बजाय चूहा निकाल लिया। लड़की को दुबला पतला होने के बावजूद यह चूहा अच्छा लगता था, क्योंकि उसकी त्वचा असाधारण थी।
- काली थी ? सफ़ेद थी?
- नहीं। उसकी त्वचा चाँदी जैसी थी।
- (मुँह खोलकर) अह!
- यह घटना मैंने एक कुएँ से सुनी। और एक दूसरे कुएँ ने मुझे बताया, कि अभी तुम्हारा चाँदी कवि दोस्त एक बड़े घर में रहता है।
- अच्छा!
- एक नन्हे पिंजरे में। और अब कवितायेँ नहीं रचता। इस के अलावा चूहा-उद-दिन के कुछ समाचार नहीं मिले।
- बहुत अफ़सोस की बात है!
- क्यों? उसके पास सब कुछ है, खाना है, न? केला, अंगूर, खीरा, कदमुल, सेम की फ़ली, …
- पर संभव है, की चूहा-उद-दिन की सारी प्रतिभा ख़त्म हो गई हो। उसका जीवन थोड़ा भी सुखी न हो।
- सच कहते हो, ऐसा ही हुआ होगा। मैं अपने शायर दोस्त के एक शब्दों को याद करता हूँ –
वे करते है पान का लिहाज़, वे चाहते है लहसुन और प्याज़ ।
पर शायरी का नज़र-अंदाज़ कौन हल करेगा इसका राज़ ।।

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

भारतीय और योरोपीय कला की कड़ी: अमृता शेर-गिल

भारत में बीसवीं शतब्दियों में बहुत से परिवर्तन हुए थे। नयी व्यवस्था, नयी व्यापार प्रणाली, नया समाज और एक नया देश पैदा हुआ था। स्वतंत्रता प्राप्त करने से पहले भारतीय लोगों ने देखा कि अंग्रेज़ी वस्तुओँ से मुक्त होकर अपना नया भारत बनाना चाहिए। उन्होंने विदेशी वस्तुएँ छोड़कर बिल्कुल भारतीय चीज़ें ढूँढ़ना शुरू किया। यह स्वतंत्रता आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण विचार था। यह खयाल कला में भी प्रकट हुआ था। सब कलाकार कला विधाओं में भारतीय परंपरा के आधार पर आधुनिक कला बनाना चाहते थे। कलाओँ में एक नयी विधा पैदा हुई थी नृत्य। साहित्य में भी बदलाव हुआ था, प्रेमचंद से लेकर नयी कहानी आंदोलन तक सब साहित्य बदलने की कोशिश करते रहे थे। चित्रकला भी इसका अपवाद नहीं थी।

आधुनिक भारतीय चित्रकला के बारे में हम बीसवीं शताब्दी की शुरूआत से बोल सकते हैं। उसी समय अलग अलग ढंग से तीन कलाकारों ने आधुनिक भारतीय चित्रकला का आधार स्थापित किया। ये अग्रदूत रबिंद्रनाथ टैगोर, जामिनी राय और अमृता शेर-गिल थे।

इनमें से मेरी प्रिय चित्रकार अमृता शेर-गिल है. वह एक आधी भारतीय और आधी हंगेरियन लड़की थी। उसकी शैली तत्कालीन कलाकारों से बिलकुल अलग थी, बिना आदर्श बनाये यथार्थ चित्र बनाती थी। वह बिलकुल भारतीय चित्रकार थी पर उनकी भारतीयता जामिनी राय या रबिंद्रनाथ टैगोर की भारतीयता से अलग थी। उनकी दुलहन का वस्त्र धारण नामक चित्र देखिए आप कहेंगे कि यह एक असली भारतीय तस्वीर है। पर अगर आप गहन दृष्टि से देखेंगे तो आपकी समझ में आएगा कि भारतीय तत्वों के अलावा इस चित्र में कुछ और भी है। यह चित्र योरोपीय शैली से भी उभरता है। यही है अमृता शेर-गिल की विशिष्टता। उसने अपनी शिक्षा योरोप में प्राप्त की थी, और भारत जाकर भारतीय कला को परखा और एक असली अंतर्राष्ट्रीय कलाकार बनी। उसकी शैली भारत में बिलकुल नयी थी, उसकी तस्वीरों की अर्थवत शक्ति प्रभावशाली रेखाचित्र और नायकों के मुद्राचित्रण में है। इन चित्रों में नायकों का सक्रियतावाद महत्त्वपूर्ण नहीं है, इनमें प्रमुख भूमिका प्रतीक्षा और तैयारी निभाती है। इस तरह की शैली, इससे पहले न योरोप में न भारत में कहीं होती थी। अमृता शेर-गिल ने देखा कि भारतीय चित्रकला को योरोपीय तकनीक चाहिए, पर अपने अपने मूल स्वरूप को भी याद रखना चाहिए। उन्होंने योरोपीय और भारतीय चित्रकला के बीच सामंजस्य जो सांजस्य स्थापित किया वह उससे पहले कोई और नहीं कर सका था। एक आधी भारतीय और आधी हंगेरियन लड़की जिसने योरोपीय और भारतीय कला में भी बिलकुल नयापन बिखेरा।

पॉल स्ट्रीट के अलबेले/जाँबाज

फेरेंस मोलनार
(अनुवाद-प्रमोद कुमार)

भूमिका - मात्यास सारकोजी

मैं इस बार की गर्मियों में इटली के एक छोटे से कस्बे में दोपहर के भोजन के लिए रुका। बुजुर्ग वेटर को बातचीत के दौरान पता चला कि मै हंगेरियन हूँ। ओ, तो इसका मतलब है कि तुम “द पॉल स्ट्रीट बॉयज़” के देश के हो। मैंने इसे किशोरावस्था मे पढ़ा था, “मुझे इसका प्रत्येक अध्याय याद है।“ जब मैंने उसे बताया कि मैं उसके लेखक का पोता हूँ, तब वह वापस रसोई में गया और मेरा खाना दुगुना कर दिया।

वास्तव में यह पुस्तक अपनी ही तरह की पुरानी अनूठी (क्लासिक) पुस्तक है। अब तक यह 14 भाषाओं में अनूदित हो चुकी है। अंग्रेजी भाषी देशों, खासतौर पर अमरीका में बसे हंगारी समुदाय के सदस्यों ने मुझे ढेरों पत्र यह लिखॉकर पूछा कि मोलनार की यह पुस्तक इतने दिनों से प्रकशित क्यों नहीं हुई। यह पुरानी पुस्तकों का खजाना बेचने वाली दुकानों पर भी नहीं मिलती। इन सभी लोगों की इच्छा थी कि वे अपने बच्चों को अपनी बचपन की मनपसंद कहानी पढ़ने को दें। इससे उनको अपने परदादाओं के समय और काल की गंध मिलेगी।

शायद प्रकाशकों को लगा होगा कि 1907 में छपा यह उपन्यास जिसका अनुवाद 1927 के आसपास हुआ था आज के कंप्यूटरी किशोरों को रास नहीं आएगा। यह सच भी है क्योंकि जब मैं कुछ सदाबहार पुराने अनूठे उपन्यासों को पढ़ता हूँ तो कम से कम मुझे लगता है कि उनका जादू अब मुझ पर नहीं चलता। पर इसके साथ ऐसा नहीं है। पॉल स्ट्रीट के अलबेले अब भी एक जमीन के टुकड़े के लिए युद्ध करने वाले किशोरों के दो गुटों की कहानी है जो उतनी ही सनसनीखेज है। टूटी-फूटी इमारत वाली जमीन का टुकड़ा, लकड़ी का अस्थाई गोदाम तो है पर साथ ही उनका साहसी कारनामों से भरा प्यारा खेल का मैदान भी है और है उनकी स्वतंत्रता का प्यारा सा प्रतीक।

पॉल स्ट्रीट कोई काल्पनिक स्थान नहीं है, यह अब भी बुदापैश्त में है, और तो और इसका नाम भी वही है। इसकी खास बात यह है कि 1907 से अब तक इसमें कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है। आजकल बच्चे नाविकों की पोषाक या नाविकों के कपड़े अब बिल्कुल भी नहीं पहनते। पर जब पास के स्कूल से बच्चों के झुंड निकलते है तो मैं उनमें आसानी से मोलनार के चरित्रो को देख सकता हूँ। गैंग का लीडर आकर्षक बोका, सबसे एक सिर (बालिश्त) लंबा, चतुर पर धोखेबाज गैरैब और इनके साथ होता है छोटा सा लड़का जो कहानी के नायक एर्नो नैमैचैक जैसा लगता है। इसने “अंकगणित के अंक 1 के समान न तो वस्तुओं (परिस्थितियों) को गुणा किया और न ही भाग किया”। इतना महत्वहीन होने के कारण एक परिस्थितियों का आदर्श पुतला बनकर रह गया। परिस्थितियों का पुतला था पर अपनी नैतिक ताकत के बल पर सबके लिए एक आदर्श बना।
जब फेरेंस मोलनार ने पॉल स्ट्रीट के जाँबाज़ लिखा था तब हंगरी में कूपर की इंडियन युद्ध कथाएँ बहुत लोकप्रिय थीं। इस किताब में उनकी नैतिकता को भी स्थान मिला है। इसमे सच्ची मित्रता, वफादारी, आदर्शवाद और स्वतंत्रता प्रेम के उदाहरण हैं। इन गुणों की आज भी आवश्यकता है।

मोलनार हमेशा अपने आप को अति भावुक होने से बचा जाते हैं। उनमें मार्क ट्वैन की हाज़िर जवाबी है। किसी भी अच्छे लेखक में विकृत और कारुणिक भावों मे सामंजस्य स्थापित करने की समझ होती है।

पॉल स्ट्रीट बॉयज पहले-पहल किशोरों की एक पत्रिका में शृंखला के तौर पर प्रकाशित हुआ था। इसका प्रत्येक अंक कुछ ही घंटों में बिक जाता था। इस नए संस्करण के लिए यहाँ-वहाँ बासीपन से बचने के लिए बातचीत चलती रहती थी।
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उपन्यास

अध्याय एक
ठीक पौने एक बजे, कई निरर्थक प्रयोगों के बाद, तनाव से भरे क्षणों से मुक्ति मिली। कक्षा के डेस्क पर रखे बुन्सेन बर्नर की रंगहीन लौ के ऊपर अचानक एक हरे रंग की रोशनी निकलने लगी। प्रोफेसर का यह दिखाने का प्रयास सफल हो गया कि कुछ रसायन आग के रंग को बदल सकते हैं। पर उसी समय, उस सफलता के क्षण में, ठीक पौने एक बजे पड़ोस के एक खुले आँगन से गड़-गड़ की आवाज आने लगी। सबका उत्साह और ध्यान तुरंत ही इस आवाज की ओर मुड़ गया। खिड़कियाँ खुली थीं और उनमें से मार्च के महीने जैसी गरमाहट अंदर फैल रही थी। इसके साथ-साथ ताजी बसंती हवा भी अपना संगीत सुना रही थी। यह एक उछलता कूदता मज्यार राग था जो मार्च के महीने में इस गड़-गड़ से पैदा हुआ था। यह पूरी तरह से एक उल्लसित करनेवाली और वियना की गंध लेकर आनेवाली थी कि पूरी की पूरी कक्षा मुस्कराने को ललचाने लगी। कुछ तो इसकी मार से बच नहीं पाए और मुस्कराने लगे।

बुन्सेन बर्नर की हरी लौ अपनी छटा बिखेरती रही। आगे बैठे छात्रों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती रही। पर बाकी सभी ने अपनी आँखों को खिड़की से बाहर पास के छोटे-छोटे आकार की छतों की ओर झाँकने दिया। कहीं दूर एक चर्च की मीनार सोने के सूरज की रोशनी से चमक रही थी। उसकी घड़ी की बड़ी सुई बारह के बहुत पास सरक गई थी। बाहर क्या हो रहा है यह जानने की कोशिश में बच्चों ने ऐसी आवाजें भी सुनी जो इस माहोल से किसी रूप में भी जुड़ी हुई नहीं थीं। घोड़ा गाड़ी चलानेवाले अपने भौंपू बजा रहे थे। कहीं कोई नौकरानी इस गड़-गड़ की आवाज के विपरीत मधुर स्वर में गा रही थी। पूरी कक्षा बेचैन थी। कुछ बच्चे अपने डेस्कों में हिलते-डुलते किताबों को उलट-पलट रहे थे। कुछ सफाई पसंद बालक अपने पैन की निब साफ कर रहे थे। बोका ने अपनी दवात चेरी रंग के चमड़े के खोल में रख ली। यह उसका अपना आविष्कार था, इससे दवात में से स्याही नहीं निकलती थी चाहे उसे जेब में रख लिया जाए। चैले ने अपने इधर-उधर बिखरे पृष्ठों को इकट्ठा किया जो किताबों के स्थान पर उसका साथ देते थे। समझ लीजिए यही चैले के ठाठ थे। उसे अपने सहपाठियों की तरह अपनी बाहों में किताबों की लायब्रेरी ढोने की आदत नहीं थी। वह उन्हीं पन्नों को लाता था जो बहुत जरूरी होते थे। इन्हें भी वह अपनी अंदर-बाहर की अलग-अलग जेबों में ठूँसे रहता था। सबसे पीछे बैठा चोनाकोश ऊबे हुए दरियाई घोड़े की तरह उबासी ले रहा था। वैइज़ ने अपनी जेबें उलट रखी थीं। उनमें से पैस्ट्री का चूरा गिर रहा था। वह कक्षा में पढ़ाई के दौरान सारा समय 10 बजे से 1 बजे तक पैस्ट्री खाता रहा था। गैरैब ने डेस्क के नीचे अपने इधर-उधर घिसे और हाथ ऊपर उठने के लिए घुमाए। बरोबास ने अपने घुटनों पर बेशर्म तरीके से किताबों पर एक तैलवाला कपड़ा लपैटा। इसके बाद उसने एक फीते से बंडल को इतनी जोर से बाँधा कि डेस्क चरमराने लगा। उसका चेहरा लाल हो गया।

दूसरे शब्दों में, सब मिलजुलकर बाहर निकलने को तैयार हो रहे थे। सिर्फ प्रोफेसर यह नहीं समझ पा रहे थे कि अगले पाँच मिनट में सब कुछ समाप्त हो जाएगा। जैसे ही प्रोफेसर की वात्सल्य भरी नज़रें फुसफुसाते किशोर सिरों पर से गुजरी, उन्होंने पूछा-
“ये सब क्या हो रहा है?”
सन्नाटा, मौत का सा सन्नाटा फैल गया। बराबोस ने किताबों पर लगे फीते को ढीला कर दिया। गैरैब ने भी अपने पैर वापस अपने नीचे घुसा लिए। वैइज़ ने अपनी जेबें फिर से अंदर कर लीं और चोनाकोश ने हाथ से कसकर अपना मुँह बंद कर उबासी को छिपा लिया। चैले ने अपने पन्ने गिराए और बोका ने जल्दी से अपनी चेरी रंग का खोल वापस रख दिया। जेब को छूते ही उससे नीली सुंदर नीली स्याही बहने लगी थी।

“ये सब क्या हो रहा है?” अध्यापक ने दोहराया, इस समय तक सब अपनी-अपनी सीटों पर चिपक चुके थे। उन्होंने खिड़की की तरफ नज़र घुमाई। उसमें से चूँ-चूँ का मशीनी संगीत आ रहा था और उनके अध्यापकीय अनुशासन की धज्जियाँ उड़ा रहा था। खिड़की की तरफ प्रोफेसर ने कठोर नज़र डालते हुए ही कहा-
“चेनगैयी, उस खिड़की को बंद कर दो।”
चेनगैयी जिसे सब छोटू चेनगैयी के रूप में जानते थे, कक्षा की ओर से, अपने गंभीर गालों वाले चेहरे की उदासी को कम किए बिना लापरवाही से उठा और खिड़की बंद कर दी।
ठीक इसी समय बरामदे की ओर बैठा चोनाकोश अपनी सीट से बाहर की तरफ झुका और एक छोटे से सुनहरी बालों वाले लड़के से फुसफुसाया, “नैमैचैक सावधान।”

नैमैचैक ने तिरछी नजर पीछे की ओर डाली और फिर फर्श की ओर देखा। कागज़ की एक छोटी सी गेंद लुढ़कती हुई उसके पैरों के पास आ गई। उसने गेंद को उठा लिया और खोला। उस पर एक तरफ लिखा था, “ इसे बोका को दे दो।”
नैमैचैक जानता था कि यह तो सिर्फ पता बताने का एक तरीका है, असली संदेश तो कागज़ की दूसरी तरफ होगा। नैमैचैक निश्चित तौर पर एक दृढ़चरित्र का लड़का था, वह किसी दूसरे की चिट्ठी पढ़ने में विश्वास नहीं रखता था। इस कारण से उसने कागज़ को फिर से गुड़मुड़ किया और एक अच्छे मौके का इंतजार किया। मौका मिलते ही बैंचों की कतारों के बीच में झुककर फुसफुसाया “बोका, सावधान।”

अब फर्श को टटोलने की बारी बोका की थी। यह फर्श ही उनका संदेशों को इधर-उधर करने का नियमित जरिया सिद्ध हुआ था। छोटी सी गेंद लुढ़कती हुई बोका के पास पहुँची। उसकी दूसरी तरफ, उसी तरफ जिसे सुनहरी बालों वाले नैमैचैक ने ईमानदारी के कारण नहीं पढा था। उस ओर ये शब्द लिखे थे: ठीक तीन बजे मैदान में एक आम सभा होगी। अध्यक्ष का चुनाव। घोषणा कर दो।”

बोका ने कागज को जेब के सुपुर्द किया और किताबों वाले फीते को अंतिम बार कसा। ठीक एक बजा था। बिजली की घंटी बजने लगी। अब प्रोफेसर की भी समझ में भी आ गया कि उनकी कक्षा समाप्त हो गई है। उन्होंने बुन्सेन बर्नर को बुझाया, अगले पाठ के बारे में बताया फिर अपनी भरी हुई चिड़ियों की प्रयोगशाला की ओर बढ़ गए। पंख फैलाए ये चिड़ियाँ अलग-अलग खानों में सजी थीं। जब भी कोई दरवाजा खोलता था उनकी शीशे की मूर्ख आँखे बाहर झाँकने लगती थीं। एक कोने में था एक उनका एक अति गुप्त, रोबीला पर महत्वपूर्ण नमूना, जो था रहस्यों का रहस्य- एक पीला हो चुका अस्थिपंजर।

पूरी क्लास तुरंत ही खाली हो गई। चौड़े खंभोंवाले बरामदे की सीढ़ियाँ जूतों की भेड़चाल के धमाकों से गूँजने लगीं। यह गूँज तभी धीमी पड़ती थी जब किसी लंबे अध्यापक की छवि इन युवा बच्चों के बीच दिखती थी। वे अपने कदमों को एक क्षण के लिए रोकते थे, जो अपने कदमों को नियंत्रित नहीं करना चाहते थे, वे अध्यापक के कोने में गायब होते ही धड़धड़ा कर सीढ़ियाँ उतरने लगते थे।

ये युवा गेट मे से लुढ़कते-पुढ़कते से गली में घुस जाते थे। उनमें से आधे बाईं ओर मुड़ते और आधे विपरीत दिशा में मुड़ जाते। कुछ प्रोफेसर भी निकलते। उनके आने पर छोटे-छोटे हेट उतर जाते। वे धुपहली गलियों में वे सभी थके-माँदे और भूखे होते। उनके दिमाग कुछ जड़ से होते थे। यह जड़ता गलियों की खुशहाली और जिंदगी को देखकर धीरे-धीरे खत्म हो जाती। वे धूप और ताजी हवा का संपर्क से कैदियों के समान चुँधिया जाते थे। वे उनकी तरह हिलते-डुलते चलते। वे शहर की विविधता, कोलाहल और खुशी में रंगरेलियाँ मनाते। वे बग्घियों, घोड़ा गाड़ियों, गलियों और दुकानों के बीच से अपना रास्ता बनाते अपने घर जाते । उनके लिए ये सारी की सारी चीजें एक ढेर जैसी होतीं।

चैले गेट के पास तुर्की शहद के एक टुकड़े के मोलभाव में चुपचाप जुटा था। हमें यह समझना होगा कि फेरीवाले ने अपनी चीजों के दाम बेशर्मी से बढ़ा दिए थे। ऐसा माना जाता है कि पूरे संसार में तुर्की शहद का रेट एक ही है और वह है एक क्रोयत्सार। तुर्की शहद बेचने वाला अपना हथौड़ा उठाता है और एक बार में मेवे वाली सफेद वस्तु का जितना टुकड़ा टूटकर गिरता है उसका दाम एक क्रोयत्सार होता है। यह भी समझा जाता है कि स्कूल के गेट के पास जो कुछ भी बिकता है, उसकादाम भी एक टुकड़ा एक क्रोयत्सार का ही होना चाहिए। कारण यह ही खरीदारी की इकाई है। एक सींक पर लगे चाशनी में डूबे तीन आलूबुखारों, तीन कटी हुई अँजीरों, तीन आड़ुओ और तीन आधे अखरोट के टुकड़ों के लिए भी आपको एक क्रोयत्सार देना होता है। ऩ तो भालूचीनी के एक बड़े टुकड़े और न ही रॉक कैंडी के एक गुच्छे का दाम एक क्रोयत्सार से ज्यादा होता है। वास्तविकता तो यह है कि एक क्रोयत्सार देकर कोई भी “छात्र चारा” नाम का स्वादिष्ट मिश्रण खरीद सकता है। यह मूँगफली, किशमिश, कैंडी, अखरोट, चीनी, बादाम और मीठी डबलरोटी के टुकड़े, धूल-मिट्टी और मरी हुई मक्खियों का मिश्रण होता है। सिर्फ एक क्रोयत्सार देकर आप यह छात्र चारा खरीद सकते हैं, इसमें सभी उद्योगों के साथ-साथ जीव व पादप जगत के उत्पाद भी शामिल होते हैं। यह कागज़ के लिफाफों में मिलता है।

चैले झगड़ रहा था, इसका मतलब है कि फेरीवाले ने दाम बढ़ा दिए थे। जो व्यापार के नियम अच्छी तरह से जानते हैं उन्हें यह पता होता है कि व्यापार का भविष्य खतरे में होने पर प्रायः दाम बढ़ जाते हैं। इस प्रकार, उदाहरण के लिए देखें तो लुटेरों वाले जोखिम भरे रास्तों से पहुँचने वाली एशियाई चाय अमूल्य होती है। इस जोखिम का भुगतान पश्चिमी यूरोप के निवासियों को करना पड़ता है। हमारा यह फेरीवाला इस छोटे से लड़के से खूब व्यापार कर रहा था क्योंकि उसे स्कूल के पास से हटाने की धमकी दी गई थी। वह यह अच्छी तरह से जानता था कि यदि एक बार उससे छुटकारा पाने का निर्णय कर लिया गया तो वह ज्यादा दिन नहीं टिक पाएगा। इसलिए अनेक प्रकार की मिठाइयों होते हुए भी वह अध्यापकों के वहाँ से गुजरने पर भी उनको समझाने के लिए इतनी मीठी मुस्कान नहीं बिखेर पाता था कि अध्यापक ये सोचने लगे थे कि वह युवाओं का दुश्मन नहीं है।

शिक्षा देने वाले ये कठोर अध्यापक कहते थे कि सभी युवा अपना पूरा पैसा इस इटेलियन पर ही खर्च कर देते हैं। फेरीवाला मन से यह जानता था कि उसका व्यवसाय इस स्कूल के पास ज्यादा दिन नहीं टिकेगा। इसी कारण से उसने दाम बढ़ा दिए थे। वह अब यहाँ से अधिक से अधिक कमा लेना चाहता था। उसने साफतौर पर चैले से कहा-
“अबसे पहले सब कुछ एक क्रोयत्सार था। अबसे हर चीज दो क्रोयत्सार।”
उसने ये शब्द बड़ी मुश्किल से हंगेरियन भाषा में कहे। इस दौरान तुनकते हुए उसने अपना हथौड़ा उठाया। गेरैब चैले से फुसफुसाया-
“इसकी शान में अपना हेट हिलाओ।”
चैले ने सोचा यह एक जोरदार बात है। यह उसे कितना रोमांचित करेगा! कैंडी का दाएँ-बाएँ उड़ना! बाकी बच्चे भी इसका कितना मज़ा लेंगे।
शैतान गेरैब ने फिर लुभाने वाली बात कही।
चलो, इसे उसके मुँह पर मार दो। वह इतना मक्खीचूस क्यों है?
चेलै ने अपना हैट उतारा।
“इतना प्यारा हैट?” उसने उदासी भरे स्वर में कहा।
गेरैब ने एक बहुत बड़ी गलती कर दी। उसका सुझाव तो आश्चर्यजनक था पर गलत व्यक्ति को दिया गया था। उसे ध्यान रखना चाहिए था कि चेलै एक छैला था। वह स्कूल केवल “पन्ने” लेकर आता है।
गेरैब ने पूछा, “तुम्हें खतरा उठाने से डर लग रहा है?”

चेलै ने उत्तर दिया, “हाँ पर एक मिनट के लिए भी मुझे डरपोक मत समझना। मैं नहीं हूँ। पर अपने हैट को गंदी तरह से फेंकने का मेरा दिल नहीं है। यदि तुम चाहते हो तो मैं खुशी से तुम्हारा हैट उस पर फैंक कर यह सिद्ध कर सकता हूँ!”
यह गेरैब के लिए बहुत था। यह तो उसकी बेइज्जती जैसा था। वह इस बात से भड़क गया। वह बोला-

“यदि इस काम के लिए मेरा हैट चाहिए तो यह काम मैं खुद कर लूँगा। वह आदमी मक्खीचूस है, मैं तुम्हें बता रहा हूँ। यदि तुम डरते हो तो अच्छा होगा कि तुम चले जाओ।”
इसके साथ ही अपने मन के अनुसार जुझारूपन का भाव लाते हुए स्वादिष्ट वस्तुओं से भरी मेज के पार भेजने के लिए उसने अपना हैट उतार लिया।

पर किसी ने पीछे से उसके उठे हुए हाथ को जकड़ लिया। लगभग आदमियों जैसी एक गंभीर आवाज़ ने पूछा “तुम क्या करना चाहते हो?”
गेरैब ने अपना सिर घुमाया, यह बोका था। उसने फिर पूछा- “तुम्हारा क्या करने का इरादा है?”
यह प्रश्न एक गंभीर पर दयालु नजर के साथ किया गया था। इससे गेरैब कुछ झिझका, वह भी शेर के समान अपने प्रशिक्षक से झगड़ने के लिए गुर्राते शेर की तरह गुर्राया। वह थोड़ा शांत हुआ। अपने हैट को वापस रखते हुए उसने अपने कंधे उचकाए। बोका ने शांत स्वर में कहा-
“उस आदमी को अकेला छोड़ दो। मैं साहस की कद्र करता हूँ, पर यह तो मूर्खता है। आओ चलते हैं।”

उसने अपना हाथ गैरेब की ओर बढ़ाया। हाथ पर स्याही का धब्बा था। दवात में से स्याही धीरे-धीरे रिस रही थी। अपनी जेब का ध्यान न करते हुए उसने हाथ पीछे खींच लिया। पर इससे दोनों में से किसी को भी परेशानी नहीं हुई। बोका ने शांत भाव से अपना हाथ पास की एक दीवार पर रगड़ साफ कर लिया। बोका के हाथ के धब्बे पर तो फर्क नहीं पड़ा, पर दीवार पर गहरे धब्बे पड़ गए। बोका ने गेरैब के हाथ में हाथ डाला और वे दोनों ने लंबी गली में अपने घर की ओर मुड़ लिए। छोटा सा साफ-सुथरा चेलै पीछे ही रह गया। वे अभी ज्यादा दूर नहीं पहुँचे थे तब एक हारे हुए विद्रोही के समान उसने इटेलियन फेरीवाले से कहा-

“ठीक है, अब से हरेक चीज दो क्रोयत्सार में बिकेगी तो तुम भी मुझे दो क्रोयत्सार जितना तुर्की शहद दो।”
उन्होंने उसे अपने साफ-सुथरे बटुए में हाथ डालते देखा, जबकि फेरीवाले के चेहरे पर मुस्कराहट झिलमिलाने लगी। वह संभवतः यह सोच रहा था कि तब क्या होगा- यदि कल से- वह दाम बढ़ाकर तीन क्रोयत्सार कर दे। पर तुरंत ही उसने अपने दिमाग से इस विचार को मूर्खता समझकर निकाल फेंका। यह उसे इतना ही मजेदार लगा जितना किसी को सपना आता है कि एक पाउंड सौ के बराबर है। उसकी हथौड़ी जोर से तुर्की शहद पर पड़ी और उसने उसे तीली में लगा दिया।
चेलै ने उसे घूर कर देखा- “यह पहले से छोटा क्यों है!”

सफलता के कारण फेरीवाला बहादुर बन गया था। वह मुस्कराते हुए बोला “अब महँगा है, इसलिए कम है।”
यह कहकर वह नए ग्राहक की ओर मुड़ गया। इस ग्राहक ने बातचीत सुन ली थी इसलिए पहले से ही दो क्रोयत्सार निकाल कर खड़ा था। फेरीवाला अपनी हथौड़ी से सफेद कैंडी को तोड़ने लगा। उसके क्रिया-कलाप मध्ययुगीन कहानियों के उन प्रसिद्ध वधिकों की याद दिलाते थे जो अपनी अपनी छोटी कुल्हाड़ियों से बौनों के सिऱ धड़ से अलग करते थे। उसे तुर्की शहद को काटने पर वैसा ही खूँखार आनंद मिलता था।
चेलै ने नए ग्राहक से कहा, “रुको इससे मत खरीदो यह कंजूस-मक्खीचूस है।”
उसने अचानक सारा का सारा तुर्की शहद मुँह में ठूँस लिया। आधा उसके मुँह में पूरी तरह से चिपक गया. हालाँकि उसे चाटकर अलग करने की आदत नहीं थी।

“मेरा इंतजार करो!” वह बोका और गैरेब के पीछे से उनकी ओर दौड़ता हुआ चिल्लाया। पहले ही कोने पर वह उनसे आगे निकल गया। अब वे तीनों सरोश्कार गली की ओर जानेवाली पिपा गली में मुड़ गए। बीच में बोका, एक-दूसरे की बाँहों में बाँहें डाले वे दोनों आगे निकल मटरगश्ती करने लगे। बोका अपनी आदत के अनुसार शांत व गंभीर सबकी रुचि के विषय पर विचार कर रहा था। वह चौदह साल का था। उसके चेहरे पर पौरुष का शायद ही कोई चिह्न था। जैसे ही वह मुँह खोलता था वह अपनी उम्र से बड़ा हो जाता था। उसका स्वर कोमल, गूँजनेवाला और आज्ञात्मक होता था। वह भूले-भटके ही मूर्खता की कोई बात करता था। उसका मन शरारत करने को जरा सा भी नहीं करता था। वह बेकार की बातों में कभी दखलंदाजी नहीं करता था।

बीच-बचाव करने के लिए तो वह बिल्कुल ही मना कर देता था। वह यह अच्छी तरह से जानता था कि इस तरह के निर्णय लोगों के मन में बीच-बचाव करनेवाले के प्रति कड़वाहट भर देते हैं। जब कभी भी स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाती थी, और जब समझदारी भरा बीच-बचाव जरूरी हो जाता था, तब बोका बीच-बचाव करता था। इस बीच-बचाव से कोई भी उसे कफन ओढ़ाने की नहीं सोचता था। ऐसा भी कह सकते हैं कि बोका एक समझदार लड़का था। वह कोई बहुत बड़ा काम कर पाए या नहीं पर जीवन में उसका आदरणीय और सामंजस्य स्थापित करने वाला मनुष्य बनना तय था।

घर जाने के लिए इस युवा त्रिमूर्ति के लिए कोस्तेलेक गली में मुड़ना जरूरी था। यह छोटी सी गली बसंती धूप से नहाई हुई थी। इस गली की एक तरफ फैली तंबाकू की भट्टी दबी आवाज में अपना संगीत बिखेरती रहती थी, पर गली पर इसका कोई असर नहीं पड़ रहा था। कोस्तेलेक गली के इन नए आगंतुकों को उसमें मात्र दो अकेले आदमी ही दिखाई पड़ रहे थे। ये गली के बीचोंबीच खड़े थे और कुछ खोजने का नाटक कर रहे थे। उनमें से एक अपनी ताकत के लिए प्रसिद्ध चोनाकोश था और दूसरा छोटू नैमैचैक।

इन तीनों युवाओँ को बाहों में बाहें डाले देखकर चोनाकोश इतना खुश हुआ कि उसने उँगलियाँ मुँह में डालकर स्टीम इंजिन की तरह की जोरदार सीटी बजाई। यह विस्फोटक सीटी उसकी अपनी ही खोज थी। कोई भी उसकी नकल नहीं कर पाता था। न ही पूरे स्कूल में कोई भी इतनी जोरदार सीटी बजा सकता था। यह सीटी कैब चालकों के बीच अधिक चलती थी। पाठन क्लब का अध्यक्ष किंडर ही एक ऐसा लड़का था जो इस तरह की सीटी बजा सकता था। परंतु किंडर यह काम तब करता था जब वह क्लब का अध्यक्ष था। इसके बाद से मुँह में उँगली डालना अपनी शान के खिलाफ समझता था। वह हर बुधवार को दोपहर के बाद मंच पर साहित्य अध्यापक के साथ बैठता था। इस तरह की सीटी बजाना प्रतिष्ठा के खिलाफ होता।

चाहे जो भी हो, चोनाकोश ने कानफोड़ू ध्वनि निकाली। तीनों लड़के इस जोड़े के पास पहुँचे। वे झुंड बनाकर कर गली के बीचोंबीच खड़े हो गए। चोनाकोश छोटू नैमैचैक की ओर यह कहते हुए मुड़ा
“क्या तुमने अभी तक इन्हें नहीं बताया?”
तिगुड्डे ने एक स्वर में पूछा “क्या?”
नैमैचैक की जगह चोनाकोश ने उत्तर दिया।
कल, म्यूजियम में उन्होंने आइनस्टेंड का स्टंट फिर से किया।
“किसने किया?”
“क्यों, वे पास्जतर बंधुओं ने?”
इसके बाद जो चुप्पी फैली वह अपशकुन जैसी थी।

यहाँ आइनस्टेंड का मतलब समझाना अच्छा रहेगा। यह एक विशेष शब्द है जिसका प्रयोग बुदापेश्त के बच्चे करते हैं। जब कभी भी कोई थोड़ा सा बहादुर बच्चा देखता है कि उससे कमजोर बच्चे कंचे या इनसे मिलता-जुलता कोई मैदानी खेल खेल रहे हैं, तब यदि वह इस खेल को बिगाड़ना चाहता है तो चीखता है- आइनस्टेंड। इस भद्दे से जर्मन शब्द का मतलब है कि कोई भी ताकतवर दूसरे कमजोर बच्चों के कंचों को लूटना अपना अधिकार समझता है। यदि विरोध होने पर ताकत की आजमाइश करने को तैयार होता है। इस तरह आ इ न स्टें ड का मतलब है युद्ध की घोषणा। इस प्रकार यह राहजनी या लूट मचाने का जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला तरीका है।

चैले सबसे पहले बोला। जब वह बोला कि “तुम्हारा मतलब है आइनस्टेंड:” तो उसके शरीर में झुरझुरी दौड़ गई।
“हाँ,” नैमैचैक ने दोहराया, अपनी सूचना के गहरे प्रभाव को देखकर नैमैचैक का साहस बढ़ गया।
तब गेरैब चिल्लाया.
“अब हम इसे और लंबे समय के लिए नहीं टाल सकते! मैं बहुत पहले से ही इस बारे में कुछ करना चाहता हूँ, पर बोका मेरे हरेक सुझाव को धता बता देता है। यदि हम कुछ नहीं करेंगे तो वे हमारे साथ मारपीट भी करेंगे।”
चोनाकोश ने दो उंगलियाँ मुँह में रखकर संकेत किया कि वह खुशी से सीटी बजाने ही वाला है। वह प्रत्येक हर उथल-पुथल का सहयोगी बनना चाहता था। पर बोका ने उसका हाथ पकड़ लिया।
“मुझे बहरा मत करो,” उसने विरोध किया। फिर पूरी गंभीरता से सुनहरी बालों वाले छोटू से पूछा- “यह सब कैसे हुआ ?”
“आइनस्टेंड, तुम्हारा मतलब?”
“हाँ, कब और कहाँ?”
“कल दोपहर बाद म्यूजियम में।”
“म्यूजियम” का मतलब था उस सरकारी भवन के आसपास की खुली जगह।
“अच्छा तो, तुम पूरी कहानी सुनाओ, बिल्कुल वैसे जैसे सारी घटना घटी थी। यदि हमें इसके बारे में कुछ करना है तो हमें सच्चाई का पता होना चाहिए। ...”

एक महत्वपूर्ण घटना का मुख्य पात्र बनने के विचार से ही नैमैचैक उत्तेजित हो गया। ऐसा उसके साथ कभी-कभी ही होता था। सब लोगों के लिए नैमैचैक की बातों का कोई महत्व नहीं होता था। वह अंकगणित के अंक एक जैसा था जिससे किसी संख्या को गुणा करने या भाग देने पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। कोई भी उस पर अधिक ध्यान नहीं देता था। वह दुबले-पतले घुटनों वाला महत्वहीन किशोर था। संभव है कि उसकी यही हीन भावना उसे आसानी से शिकार बना देती थी। अब उसने अपनी कहानी सुनानी शुरु की। सब लोग कान लगाकर उसकी बात सुनने लगे।

उसने कहा, “कुछ ऐसे घटी यह घटना, दोपहर को अपना खाना समाप्त करके हम म्यूजियम की ओर निकल गए। मेरा मतलब है वैईज़, रेख्तर, कोलनय, बरोबास और मैं। पहले हमने सोचा कि एस्तरहाज़्य गली में बेसबाल खेलें। पर बाल रीयल स्कूल के छात्रों की थी और वे हमें देनेवाले नहीं थे। तब बरोबास ने सुझाव दिया कि ‘हम म्यूजियम में जाकर दीवार के पास कंचे क्यों न खेलें’। हम सबने ऐसा ही किया। सबको कंचे फेंकने की बारी मिली, और जिसने पहले फेंके कंचे को निशाना बनाया उसे सारे कंचे मिल जाते। यह खेल कई बार तक चलता रहा। अब दीवार के पास लगभग 15 कंचे थे। मेरे विचार से उनमें से दो कबूतरियाँ थीं। अचानक रेक्टर चिल्लाया, “अब खेल खत्म, पास्तजर बंधु आ गए हैं!’ अपने सिर नीचे किए जेब में हाथ डाले पास्तजर बंधु एक तरफ से आ रहे थे। वे इतनी चुपचाप आए कि हम सब डर गए। वे दो थे और हम पाँच पर इसका कोई मतलब नहीं था? वे हम जैसे दस लोगों को भी धूल चटाने के लिए भी काफी थे। एक बात यह भी है कि हम पाँच थे भी कहाँ, हमेशा पलक झपकते ही कोलनय गायब हो जाता है। ऐसा ही बरोबास भी करता है। इस प्रकार बचे केवल हम तीन। मैं भी भागने के बारे में सोच सकता था। इस तरह केवल दो ही बचते। यदि हम पाँचों वहाँ से भागने की कोशिश भी करते तो कोई फायदा नहीं होता, पास्तजर बंधु म्यूजियम में सबसे अच्छे दौड़ने वाले हैं। वे हमें तुरंत ही पकड़ लेते। तो, जैसा कि मैं बता रहा हूँ वे हरदम कंचों पर निगाहें टिकाए हमारे पास और पास आते गए। मैंने कोलनय से कहा- ‘उनकी रुचि हमारे कंचों में है।’ वैईज़ हम लोगों में सबसे चतुर था क्योंकि उसने तुरंत ही घोषणा कर दी थी- ‘सच है, वे आ रहे हैं। मुझे आइनस्टेंड की गंध आ रही है!’ सच बताऊँ, मुझे नहीं लगता कि वे हमारे साथ मारपीट करेंगे क्योंकि हमने कभी उन्हें परेशान नहीं किया है। हुआ भी ऐसा ही, उन्होंने हमारे साथ कोई हरकत नहीं कि। वे हमारा खेल देखते रहे। तब कोलनोय मुझसे फुसफुसाया ‘अब खेल बंद कर देते हैं।’

मैंने कहा- ‘मैं नहीं बंद करूँगा, खासकर तब जब तुम्हारा निशाना सही नहीं लगा है! अब मेरी बारी है। मैं जीत गया तो हम खेल बंद कर देंगे।’ इस दौरान रेख्तर की बारी थी, कंचे फेंकने की। मैंने देखा उसका हाथ डर के मारे काँप रहा था। उसकी एक आँख पास्तजर बंधुओं पर लगी थी। उसका निशाना भी चूक गया। पर पास्तजर बंधु हिल-डुल भी नहीं रहे थे। वे अपनी जेबों में हाथ डाले वहाँ खड़े थे। अब मेरी बारी आई। मैंने सही निशाना लगाया और मैं सारे कंचे जीत गया। मैं कंचे इकट्ठे करने के लिए जाने ही वाला था। उस समय लगभग 30 कंचों का खेल चल रहा था। तभी उन दोनों पास्तजर बंधुओं में से एक कूदकर मेरे सामने आ गया। यह छोटा वाला था। वह चीखा ‘आ इ ऩ्स टें ड!’ मैंने देखा कोलनय और बरोबास भाग गए थे वैईज़ दीवार के पास खड़ा था। वह एकदम पीला हो गया था। रेख्तर सोच रहा था कि क्या करे? मैंने उन्हें बहस करने की कोशिश की। मुझे याद है कि मैंने कहा था- ‘माफ करें, आपको यह करने का कोई अधिकार नहीं है।’ तब तक बड़ा पास्तजर कंचों को उठाकर उन्हें जेब में ढूँसने का काम लगभग पूरा कर चुका था। छोटे ने सामने से मेरी जैकेट पकड़ी और चिल्लाया- ‘क्या तुमने मुझे >>आ इ ऩ्स टें ड<< कहते नहीं सुना?’ उसके बाद तो मैंने कोई शब्द नहीं कहा। वैईज़ चिल्लाने लगा। कोलनय और केंदे ने म्यूजियम के कोने के पास से झाँककर देखा कि क्या चल रहा है। पास्तजर बंधुओं ने सारे कंचे उठा लिए थे। इसके बाद वे बिना कुछ कहे चुपचाप निकल गए। बस यही सब हुआ था।”
“ऐसा तो कभी नहीं सुना,” गेरेब ने गुस्से से कहा।
“यह तो दिन-दहाड़े की लूटपाट है!”

यह राय थी चैले की। सारनोक ने एक बार फिर कानफोड़ू सीटी बजाई। मतलब था कि स्थिति विस्फोटक है। बोका गहरे सोच में डूबा निश्चल खड़ा था। सबकी निगाहें उसपर टिकी थीं। सब यह जानना चाहते थे कि बोका इन परेशानियों के बारे में क्या कहना चाहता है। ये कई महीने से इसी तरह चल रही थीं। बोका ने इनको गंभीर मानने से इंकार कर दिया था। पर इस अवसर पर, जैसा कि नैमैचैक ने बताया, इसमें छिपे अन्याय ने बोका को भी हिला दिया था। उसने शांत स्वर में कहा-
“मुझे लगता है अब हमें घर जाकर खाना खाना चाहिए। आज दोपहर के बाद हम अपने ठिकाने- मैदान पर मिलेंगे। वहाँ हम इन सब पर बात करेंगे। अब मैं भी मानता हूँ कि अब सिर से पानी उतर गया है !”

इस घोषणा सब संतुष्ट हो गए। बोका भी दयालुता भरा दिख रहा था। सब लड़कों ने प्यार भरी नजरों से उसे देखा। वे सभी उसके छोटे पर परिपक्व मस्तिष्क, उसकी सैन्य चमक से दमक रही चमकती काली आँखें जो इस समय युद्ध के लिए तैयार सैनिक के समान दमक रही थीं। वे सभी बोका को चूमना चाहते थे, अंतत वह भी उनके इस अपच का भागीदार बन गया था।
एक बार फिर वे अपने-अपने घर की ओर चलने लगे। योसेफ जिले में कहीं बजती हुई घंटी उनकी खुशी में शामिल थी। सूरज अपनी पूरी चमक बिखेर रहा था और सारा वातावरण एक खुशी से भर गया था। ये लड़के कुछ बड़ा करने के कगार पर थे। कुछ कर गुज़रने की इच्छा की लौ उनके मन में कही गहरी लगी हुई थी। अब वे सब अगली चाल के इंतजार में अपना समय बिता रहे थे। सबको विश्वास था कि बोका ने यदि घोषणा कर दी है कि कुछ करना होगा, इसका मतलब है कुछ न कुछ अवश्य होगा।

वे ऊलोई एवेन्यू की ओर आगे और आगे बढ़ते ही चले गए। चोनाकोश और नैमैचैक पीछे ही रह गए। जब कुछ कहने के लिए बोका उनकी तरफ मुड़ा तो वे एक तंबाकू की एक फैक्टरी के तहखाने की खिड़की के पास खड़े थे। यह खिड़की तंबाकू के चूरे की मोटी तह से पुती थी।

चोनाकोश जोर से चिल्लाया, “जोर से साँस खींचो!” उसने जोर से सीटी बजाई और अपनी नाक को पीली धूल से भर लिया।
छोटा बंदर नैमैचैक, खुलकर हँसा। उसने भी अपना दुबला पतला हाथ शीशे पर रखा और अपनी उँगली की पोर पर से जोर से सूँघा। वे दोनों छींकते हुए कोजतेलेक गली को पार कर गए। वे अपनी इस खोज से बहुत प्रसन्न थे। चोनाकोश छींकते हुए तोप के गोले सी आवाज़ निकाल रहा था। छोटा बच्चा उस तरह सुड़क रहा था जैसे कि कोई गिन्नी पिग परेशान हो गया हो। इस प्रकार वे दोनों छींके, सुड़के, हँसे और उछलकूद करते रहे। उस समय उनकी खुशी का कोई पारावार न था। वे यह भी भूल गए कि शांत और गंभीर स्वभाव वाले बोका ने कुछ ऐसा कहा था जैसा कि किसी ने नहीं सुना था।

पकड़ लोमड़ी और मछली की (नाटक)

--दानिश बिशोफ

पात्र- 1. सूत्रधार, 2. किसान, 3. राजा, 4. दो द्वारपाल 5. दो सिपाही 6. हंटर मारनेवाला

सूत्रधार- (एक बार एक लोमड़ी किसी नदी के पास गई। जब पानी पीने लगी, एक मूँछवाली मछली की पूँछ देखी। इसी समय मूँछवाली मछली ने लोमड़ी की पानी में डूबी पूँछ देखी। जब लोमड़ी ने मूँछवाली मछली की पूँछ पकड़ी तभी मूँछवाली मछली ने लोमड़ी की पूँछ पकड़ ली। दोनों शिकारी जानवर हैं, दोनों एक-दूसरे की पूँछ छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। यह बहुत देर तक होता रहा तब एक किसान वहॉँ आया। किसान को आश्चर्य हुआ कि दोनों एक दूसरे को छोड़ नहीं रही थीं। उसने सोचा अच्छा मौका है दोनों को पकड़ेगा और महाराज के पास ले जाएगा। अगर उन्हे पसंद आ गया तो उसे कुछ भेंट देंगे। उसने दोनों को पकड़ लिया और दरबार पहुँच गया।)
किसान- (द्वारपाल से) नमस्कार, मुझे अंदर जाने दो। महाराजा से मिलने आया। उनके लिए एक भेंट लाया।
द्वारपाल- सुन, तब अंदर जाने दूँगा, अगर महाराज तुम्हें जो इसके बदले देंगे, उसका आधा हिस्सा मुझे दोगे। मंजूर है।
किसान- क्या करूँ, मंजूर।
द्वारपाल2- रुक जा ऐसे कहाँ जा रहा है?
किसान- जी, मुझे अंदर जाने दो। महाराजा से मिलने आया। उनके लिए एक भेंट लाया।
द्वारपाल- अच्छा, यह बात है। ठीक है अंदर जाने देता हूँ। लेकिन महाराजा तुम्हें जो इसके बदले देंगे, उसका आधा हिस्सा मुझे देना। मंजूर है।
किसान- क्या करूँ, मंजूर है।
द्वारपाल2- (अंदर जाकर महाराज से) महाराज की जय।
महाराज- बोलो क्या बात है?
द्वारपाल2- एक किसान आया आपसे मिलने। आपके लिए एक भेंट लाया।
महाराज- बुला दो उसे। (द्वारपाल किसान को अंदर ले जाता है और अपनी जगह लौट आता है।)
किसान- महाराज की जय।
महाराज- उठो मुझसे मिलने आए हो। बोलो क्या बात है?
किसान- (आगे बढ़के महाराज को भेंट दिखाकर) महाराज यह भेंट लाया आपके लिए। पकड़ लोमड़ी और मछली की।
महाराज- हँसते हुए राज सिंहासन से उठकर, किसान के पास जाकर, भेंट देखकर) अरे!!! वाह! वाह! कितना अच्छा उपहार! हा-हा-हा-हा! जकड़ा लोमड़ी और मछली की। ऐ किसान! यह सचमुच बहुत अच्छा लगा! बहुत मजा आया। इसके बदले में हम तुम्हें एक पूरा थैली सोना देते हैं।
किसान- क्षमा कीजिए महाराज, मुझे यह सोने की थैली मत दीजिए। मुझे कुछ और चाहिए।
महाराज- तो बोलो न! क्या दे सकते हैं, हम तुम्हें।
किसान- महाराज मुझे बस पचास कौड़े मारने की सजा दीजिए।
महाराज- (आश्चर्य से) पचास कौड़े मारने की सजा !!!???
किसान- जी महाराज, मुझे बस पचास कौड़े लगवा दीजिए।
महाराज- (अपने पास वाले सिपाहियों से)- इसे पचास कौड़े लगाओ।
सिपाही- जी महाराज।
सूत्रधार- (दोनों सिपाही किसान को पकड़ के बाहर ले जाते हैं। महाराज, सब लोग उत्सुकता से देख रहे हैं। अब क्या होगा? एक द्वार में पहुँच कर द्वारपाल किसान के कान में कुछ कहता है। गड़रिया इशारा करता है, साथ आने के लिए। तब सिपाहियों को भी। महाराज को भी कुछ समझ में आता है। सब मुस्कराने लगे। दूसरे द्वार में सब कुछ इसी तरह से होता है। तब सब हँसने लगते हैं। मैदान में पहुँचकर सिपाही दोनों द्वारपालों को पच्चीस-पच्चीस कौड़े मारते हैं। तब तक महाराज स्वयं वहाँ पहुँच जाते हैं।)
महाराज- (किसान से) हा, हा, हा, तुम बड़े बुद्धिमान हो, तुम हा, हा, हा। अब सब समझ में आया। लेकिन अब तुम वह थैली सोना हमसे लेते हो?
किसान- जी महाराज! बहुत-बहुत धन्यवाद! आप अमर रहें।
(प्रणाम करके विदा लेता है, सब चले जाते हैं।

महाकवि कालिदास

--अत्तिला सबो

महाकवि कालिदास संस्कृत साहित्य के सबसे बड़े कवि और नाटककार हैं। उन्होंने तीन नाटक तथा चार काव्यग्रंथ लिखे हैं। नाटकों में- ‘मालविकाग्निमित्र’, ‘अभिज्ञान शाकुंतल’, और ‘विक्रमोर्वशीयम्। उनकी कविताओं के नाम ‘रघुवंश’, ‘कुमारसंभव’, ‘ऋतुसंहार’ तथा ‘मेघदूत’।
उनकी भाषा सरल और सरस है। कालिदास बहुत बुद्धिमान और ज्ञानी आदमी थे। हम उनके जीवन बारे में बहुत कम जानते हैं। शायद वे चौथी या पाँचवी शताब्दी में जीते थे। उनके जीवन के बारे में कई अलग-अलग कहानियाँ हैं। उनमें से एक कहानी के अनुसार कालिदास उज्जयिनी में रहते थे। वे बहुत सुंदर युवक थे लेकिन बड़े मूर्ख और अनपढ़ थे। उज्जयिनी के राजा की एक बहुत रूपवान और विद्वान बेटी थी जिसका नाम विद्योत्तमा था। राजकुमारी को अपनी विद्या पर बड़ा गर्व था। उसने कहा कि मैं उसी आदमी के साथ विवाह करूँगी जो मुझे शास्त्रार्थ में पराजित कर देगा। उसके घोषणा करने के बाद, इधर-उधर के पंडित विद्योत्तमा से शास्त्रार्थ करने के लिए आए। लेकिन कोई भी विद्योत्तमा को पराजित नहीं कर सका। एक दिन पंडितों ने कालिदास को एक ऐसी डाल पर बैठे देखा जिसे वह काट रहा था। इसलिए पंडितों ने सोचा यह बड़ा मूर्ख है। उसके बाद वे कालिदास को सुंदर वस्त्र पहनाकर विद्योतमा के पास ले गए। उन्होंने राजकुमारी से कहा कि कालिदास उनके गुरु हैं। वे बोल नहीं सकते क्योंकि उन्होंने मौन-व्रत धारण कर रखा है। शास्त्रार्थ में कालिदास ने संकेतों में बताया और पंडितों ने विद्योत्तमा से संकेतों के मतलब कहे। इसलिए विद्योत्तमा ने कालिदास को बहुत बुद्धिमान सोचा और दोनों का विवाह हो गया। पर एक दिन विद्योत्तमा पता लगा कि उसका पति बड़ा मूर्ख है। उसने अपने पति को महल से बाहर निकाल दिया। कालिदास काली के मंदिर में गया, वहाँ काली की मदद के कारण उन्होंने अपनी पढ़ाई आरंभ की। इनके नाम का अर्थ भी काली का सेवक है।

नन्हा राजकुमार

--विराग कातालीन

एक राज कुमार उदास बैठा था। वहाँ एक लोमड़ी आई। उसने कहा- नमस्कार। नमस्कार, नन्हे राजकमार ने विनम्र स्वर में जवाब दिया पर मुड़कर नहीं देखा।
यहाँ हूँ मैं, सेब के पेड़ के नीचे। एक आवाज आई।
तुम कौन हो? -नन्हे राजकुमार ने पूछा,- तुम सुंदर हो...
मैं लोमड़ी हूँ, लोमड़ी ने कहा।
आओ, तुम मेरे साथ खेलो। नन्हें राजकुमार ने अनुरोध किया- मैं बहुत उदास हूँ।
मैं तुम्हारे साथ नहीं खेल सकती- लोमड़ी ने कहा- मुझे अभी तक किसी ने साधा नहीं है।
माफ करो, नन्हे राजकुमार ने कहा। कुछ सोचने के बाद वह बोला- साधा इसका क्या मतलब है
लोमड़ी बोली- इंसानों के पास बंदूक होती है। वे शिकार कर ते हैं। क्या बताऊँ, यह किसी को भी पसंद नहीं आता। इसे अलावा वे मुर्गियाँ पालते हैं। उनकी दिलचस्पी बस इतनी है। क्या तुम भी मुर्गियाँ खोज रहे हो
नन्हे राजकुमार ने उत्तर दिया- नहीं, मैं दोस्त खोज रहा हूँ। साधा इसका क्या मतलब है
यह ऐसा काम हे जो दुनिया परी तरह भूल गई है, लोमड़ी ने कहा- इसका मतलब है- दोस्ती करना।
दोस्ती करना
हाँ अभी तुम मेरे लिए ऐसे लड़के जैसे दूसरे लाखों लड़के हैं। न मुझे तुम्हारी जरूरत है न ही तुम्हें मेरी। तुम्हारे लिए मैं भी अन्य किसी लोमड़ी जैसा हूँ। पर जब तुम मुझे साध लोगे तब हम एक दूसरे की जरूरत बन जाएँगे। तुम मेरे लिए मैं तुम्हारे लिए खास हो जाएँगे, लोमड़ी बोली।
मेरी समझ में आने लगा है, नन्हे राजकुमार ने बताया- एक फूल है लगता है उसने मुझे साध रखा है।
हो सकता है इस धरती पर ऐसी अनेक घटनाएँ होती हैं, लोमड़ी बोली।
यह घटना इस धरती की नहीं है।
लोमड़ी की जिज्ञासा जग गई।
दूसरे ग्रह की है
हाँ।
क्या उस ग्रह पर शिकारी होते हैं
नहीं।
यह तो बहुत रोचक बात है। मुर्गियाँ हैं।
नहीं।
सभी जगहों में कोई-न-कोई कमी होती है। लोमड़ी ने लंबी साँस ली। पर सोचती रही। मेरा जीवन एकरस है। मैं मुर्गियों का शिकार करती हूँ और लोग मेरा। कोई भी मुर्गी दूसरी मुर्गियों जैसी ही होती है और भी इंसान दूसरे जैसा । इसलिए मैं हमेशा उबी रहती हूँ। पर अगर तुम मुझे साध लोगे तो इससे मेरे जीवन में बहार आ जाएगी। मैं ऐसी पदचाप सुनुँगी जो दूसरी पदचापों से अलग होगी। दूसरी पदचापों से मैं धरती के अंदर छिपना चाहती हूँ। तुम्हारी पदचाप संगीत की तरह मुझे गुफा से बाहर बुलाएँगी। देखो, क्या तुम उस गेहूँ के खेत को देख रहे हो... मैं रोटी नहीं खाती, मुझे गेहूँ की जरूरत नहीं है। मुझे गेहूँ का खेत देखकर कुछ भी याद नहीं आता। क्या तुम जानते हो यह बात कितनी उदास करने वाली है.. लेकिन तुमहारे बालसोने से सुंदर है। कितना अच्छा हो कि तुम मुझे साध लो.. तब सोने जैसे गेहूँ देखकर मुझे तुम्हारी याद आएगी। गेहूँ के खेत में हवा की इस आवाज से मैं कितना प्यार करूँगी।।
लोमड़ी चुप हो गई, बहुत देर तक नन्हे राजकुमार को देखती रही। वह फिर बोली-
कृपा करके मुझे साध लो।
मुझे खुशी होती- नन्हे राजकुमार ने कहा- पर मेरे पास समय बहुत कम है। मुझे अपने दोस्तों ढूँढ़ना है। बहुत सारी बातों के बारे में जानना है।
लोग जब किन्हीं चीजों को साधते हैं उनको जान जाते हैं- लोमड़ी ने कहा- लोगों के पास किसी भी चीज को जानने को जानने का समय नहीं है। वे दुकानदारों से बनी बनाई चीजें खरीदते है। पर दोस्त दुकानों पर नही बिकते। इसलिए लोगों के दोस्त कम होते हैं। अगर तुम चाहते हो कि कोई तुम्हारा दोस्त हो तो तुम मुझे साध लो।
ठीक है, ठीक है, पर कैसे।।। नन्हे राजकुमार ने पूछा।
इस काम को करने के लिए बहुत धैर्य की जरूरत होगी- लोमड़ी ने उत्तर दिया। पहले वहाँ घास पर एक निश्चित दूरी पर बैठ जाओ। मैं अपनी आँखों की कोरों तुम्हें देखूँगी, तुम कुछ भी मत बोलना। बातचीत से भ्रम पैदा होत है। इससे हर रोज़ हमारे बीच दूरी कम होगी, धीरे-धीरे तुम मेरे निकट आ सकोगे।
अगले दिन राजकुमार वापस लौटा। लोमड़ी ने उससे कहा- ज्यादा अच्छा होता अगर तुम सही समय पर आते। अगर तुम शाम को चार बजे आओगे मैं तीन बजे से ही खुशी महसूस करने लगूँगी। समय बीतने के साथ-साथ मेरी खुशी भी बढती जाएगी। चार बजे के आस-पास मेरा मन उत्सुकता और चिंता से भरा होगा। मुझे पता चलेगा खुशी कितनी बड़ी बूँजी है। अगर तुम किसी भी समय आ जाओगे, तो मुझे पता नहीं होगा कि अपने मन को कितने बजे सुंदर कपडों से ढकूँ... लोगों को जीने का तरीका जरूर आना चाहिए।
जीने का तरीका , इसका क्या मतलब है.. नन्हे राजकुमार ने पूछा।
जीने का तरीका, ऐसी चीज है जिसे लोगों ने बिल्कुल भुला दिया है। लोमड़ी ने उत्तर दिया- जीने का तरीका एक दिन को दूसरे से, एक घंटे को दूसरे से, अलग करता है। शिकारियों को भी अपना तरीका होत है। वे हर गुरुवार को गाँव की लड़कियों के सॉत नाचने जाते हैं। इस कारण गुरुवार मेरे ले अद्भुत होता ह. तब मैं अंगूर के खेतों तक टहलने जा पाती हूँ। अगर शिकारी किसी भी समय नाचने जाएँ तो हर दिन एक तरह का होगा और मेरी छुट्टियाँ बिल्कुल भी नहीं होंगी।
इस तरह नन्हे राजकुमार ने धीरे-धीरे लोमड़ी को साध लिया जब विदा का समय आने वाला था तो लोमड़ी ने कहा-
मैं रोने लगूँगी।
यह गलत होगा। नन्हे राजकुमार ने कहा मैं तुम्हारे लिए कोई मुश्किल पैदा करना नहीं चाहता। तुमने ही साधने के लिए हठ किया।
हाँ, यह तो सच है। लोमड़ी ने कहा।
फिर भी तुम रोओगी।
हाँ, यह भी सच है- लोमड़ी ने कहा।
इसका मतलब, इस सारी बात का कोई फायदा नहीं हुआ।
हुआ,- लोमड़ी बोली- गेहूँ के रंग से। तुम फिर गुलाबों को देखो। तुम समझ जाओगे कि तुम्हारा गुलाब सारी दुनिया में विशेष है। इसके बाद विदा लेने के लिए लौट आना, तब मैं एक और बात तुम्हें समझाऊँगी।
नन्हा राजकुमार फिर से गुलाबों को देखने गया।
तुम मेरे गुलाब जैसे बिल्कुल नहीं हो,- उनसे कहा- तुम बेकार हो क्योंकि न तुम्हें किसी ने साध और न तुमने ही किसी को साधा। तुम वैसे ही हो जैसी कि मेरी लोमड़ी थी। वह अन्य लाखों लोमड़ियों जैसी आम लोमड़ी थी। लेकिन मैंने उससे दोस्ती कर ली है, वह अब सारी दुनिया से अलग विशेष है।
गुलाब कुलबुलाए, नन्हें राजकुमार ने अपनी बात जारी रखी-
तुम सुंदर तो हो पर खोखले हो, तुम्हारे लिए कोई नहीं मरेगा। यह भी एक सच्चाई है कि आने-जाने वाले लोग मेर गुलाब को तुम्हारे जैसा कहेंगे। पर असल में वह मेरे लिए तुम सबसे ज्यादा कीमती है, क्योंकि मैं उसे सींचता था। उसकी हवा से रक्षा करने लिए मैंन शीशे का कटोरा रखा था। उससे मैंने (दो तीन के अलावा, तितली बनने के लिए) कीड़ों को हटाया था। मैं उसकी शिकायत, शेखी और कभी-कभी उसका मौन भी सुनता था। वह है मेरा गुलाब।
इसके बाद लोमड़ी के पास लौट आया।
दोनों ने एक दूसरे से कहाः
भगवान तुम्हारा भला करे, अलविदा।
लोमड़ी कहने लगी- मेरा यह रहस्य बहुत सरल है, लोग सिर्फ दिल से ही अच्छी तरह देख सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात को आँखें नहीं देख पातीं।
सबसे महत्वपूर्ण बता को आँखए नहीं देख पातीं। नन्हे राजकुमार ने अच्छी तरह याद रखने के लिए दोहराया।
वह वक्त, जिसे तुमने अपने गुलाब की देखभाल में गँवाया, उस वक्त ने ही उस गुलाब को तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण बनाया है।
वह वक्त, जिसे मैंने अपने गुलाब की देखभाल में गँवाया, नन्हे राजकुमार ने अच्छी तरह याद रखने के लिए दोहराया।
इस सच्चाई को लोगों ने भुला दिया है- लोमड़ी ने कहा पर तुम मत भूल जाना। उसके लिए तुम हमेशा उत्तरदायी हो जिसे तुमने अपनाया। तुम अपने गुलाब के लिए उत्तरदायी हो...
मैं अपने गुलाब के लिए उत्तरदायी हूँ, नन्हे राजकुमार ने अच्छी तरह याद रखने के लिए दोहराया।

रिर्क्रित तिरवनिजा की कला

--कार्पाति मेलिंडा

तिरवनिजा एक संकल्पनावादी कलाकार है, जो ब्यूनस आर्यस में पैदा हुआ था। उसके माता पिता थाई थे। आजकल वह अमेरिका में रहता और वहाँ ही काम करता है। वह अपने असामान्य और बहुत ही रोचक प्रदर्शनों से पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हुआ है।

इन प्रदर्शनों के अवसर पर वह क्लासिक और सामान्य कला से अलग प्रकार के तरह-तरह के मॉडल और संरचनाएँ बनाते हैं। इसका मतलब यह है कि वह कलावीथियों, संग्रहालयों का प्रयोग करके उनमें परिवर्तन करके उनमें परिवर्तन करते हैं। उदाहरण के लिए वह अपने पूरे घर का म़ॉडल कलावीथियों में बनाते हैं, जिसमें जाकर लोग दिन भर सब कुछ कर सकते हैं, सोना, अखबार पढ़ना, नहाना, दोस्तों से मिलना, रात का खाना खाना, नाश्ता करना। अर्थात अपनी दिनचर्या के सभी कार्य। इसके अलावा कई प्रदर्शनों के अवसर पर कला वीथियों में एक रसोई बनाते हैं, जिसमें कोई भी अपना खाना खुद पका और खा सकता है। इस तरह के प्रदर्शन में जाकर लोग कलाकृतियाँ नहीं देखते, वे कला में हिस्सेदारी करते हैं, वे उसका ही एक अंग बन जाते हैं। इसका मतलब यह है कि कला इन लोगों के कारण जन्म लेती है। इस कला का आधार मानवीय संबंध हैं।

वह अपनी कला से सामाजिक नियमों और आधुनिक उपभोक्त समाज से स्वतंत्रता के लिए लड़ता है। तिरवनिजा कहता है कि वह पतलाच संकल्पनावादी है। पतलाच एक प्राचीन अमेरिकी आदिवासी शब्द है जिसका मतलब है, “दावत देनेवाला”। पतलाच एक बड़ा त्योहार था। इसके अवसर पर जाति का प्रत्येक सदस्य दूसरे लोगों के लिए पकवान बनाता था और खिलाता था। इस शब्द का दूसरा अर्थ है “धन त्यागना”। यह भी तिरवनिजा की कला का प्रमुख संदेश है।

प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन का स्मरण

--एवा अरादि

प्रथम विश्व हिंदी सम्सेलन जनवरी 1975 में नागपुर में आयोजित हुआ था। उस समय मैं बोम्बई (मुम्बई) के भारतीय विद्या भवन में पढ़ती थी। मैं सम्मेलन में हिंदी भाषा की प्रेमी के रुप में गई थी और यह प्रेम आज तक मेरे दिल में रहता है। इसलिए मेरे लिए बहुत खुशी की बात थी उस सम्मेलन में भाग लेना।

सम्मेलन का भला प्रबंध महासचिव स्वर्गीय अनंत गोपाल शेवदे जी का काम था। मुझे सम्मेलन का नाराः ,वसुधैव कुटुम्बकम, भी बहुत अच्छा लगता था। पहले विश्व हिंदी सम्मेलन का उद्देश्य ही था कि हिंदी राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय महत्व पर जोर दिया जाये। उस समय भी भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र था और देश में हिंदी सबसे बड़ी भाषा थी। और यह भाषा न केवल भारत में लेकिन मोरिशस, त्रिनिदाद, गयाना, सुरीनाम, फीजी, अमेरिका और इंग्लैंड में भी बोली जाती है। हिंदी के महत्व को नागपुर के सम्मेलन में सब सदस्यों ने मान लिया।

हम प्रतिदिन विचार गोष्ठियों में हिंदी के बारे में अलग-अलग भाषण सुनते थे। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सबसे भला एक नाटक हुआ था, जो महाकवि दिनकर के काव्य, उर्वशी, पर आधारित था। बाद में मैंने इस काव्य के एक भाग का अनुवाद किया हंगेरियन भाषा में।

सम्मेलन में मैं भारत के विद्वानों से और श्रेष्ठ साहित्यकारों से मिली थी, उदाहरण के लिए जैनेंद्र कुमार, काका कालेलकर, विष्णु प्रभाकर, यशपाल जैन, डॉ. धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, महादेवी वर्मा, और अमृता प्रीतम। और मेरे प्रिय लेखक प्रेमचन्द के बेटेः अमृत राय के साथ भी।

विदेशियों को हंगेरियन लोग कैसे लगते हैं?

सब राष्ट्रों के बारे में अंधविश्वास होते हैं। उदाहरण के लिए अंग्रेज लोगों को चाय पीना आवश्यक है, इतालवी लोग सुस्त होते हैं और फ्रेंच लोग आत्मसंतुष्ट होते हैं। इन कथनों में से कुछ सत्य हैं तो कुछ कल्पना।

हंगेरियन लोगों के बारे में भी बहुत मज़ाकवाले विचार है। कुछ विदेशी लोग सोचते हैं कि हंगेरियन लोग घोड़ों पर चलते हैं और तंबुओं में रहते हैं। मेरे खयाल से सब राष्ट्रों की नकारात्मक और सकारात्मक विशेषताएँ होती हैं। मैं सोचती हूए कि हंगेरियन लोग बारबार निराश और असंतुष्ट होते हैं। इसलिए वे बहुत शिकायत करते हैं। बदनसीबी से हंगेरी में तंबाकू पीना, शराब पीना आत्मघात करना आम बात है। पर फिर भी हंगेरियन लोग बहुत साधन-संपन्न और चतुर होते हैं।, इसलिए हंगेरी ने दुनिया को अनेक विद्वान, आविष्कारक, कलाकार और चित्रकार दिए हैं। हंगेरियन लोग नावज़ हैं और उन्हें मन बहलाना अच्छा लगता है।

मैंने हंगेरी में रहनेवाले कुछ भारतीय लोगों के विचार पूछे। वे सोचते हैं कि हंगेरियन लोग बहुत परोपकारी और प्यारे होते हैं। वे मेहमाननवाज़ होते हैं, तथा वे भारत, भारतीय लोगों और भारतीय संस्कृति का बहुतसम्मान करते हैं। नकारात्मक विशेषताएँ हैं कि वे लोग (खासतौर पर लड़कियाँ और महिलाएँ) बहुत सिगरेट और शराब पीते हैं। युवा लोग थोड़े से हठी भी होते हैं। हंगेरियन चालक रास्ते में बहुत आक्रमणकारी होते हैं, और आपस में एक दूसरे से दोस्ती नहीं करते।

मेरी सिसली की डायरी

--पेतैर शागि

४ - ५ अप्रैल, शनिवार-रविवार
आज हमारी यात्रा का पहला दिन है। बस में काफ़ी आराम से बीत गया, क्योंकि दल के २८ व्यक्तियों में से १८ नेपल्स तक हवाई जहाज़ से पहुचेंगे। इसलिए इस लंबे सफ़र के दौरान सबके फैलने के लिए पर्याप्त जगह थी। शनिवार की दोपहर को चलकर हम रविवार सुबह नेपल्स पहुँचे वहाँ हमने हवाई जहाज़ से आने वालों को अपनी बस में चढ़ाया । यह दिन कितना लंबा होगा किसी भी को मालूम नहीं था । नेपल्स और इटली के सबसे दक्षिणी बिंदु के मध्य हम लोगों ने पैस्तुम देखा । यहाँ अनेक बड़े-बड़े सुन्दर यूनानी गिरजाघर हैं । एक समाधि भी देखी। इसकी अंदरूनी दीवार पर बना एक फ़्रेस्को है। इसमें एक गोताखोर है । यह अपने-आप में एक सचमुच ही निराला चित्र है। मैंने प्राचीन गोताखोरों के बारे में लिखे एक निबंध में इसका इस्तेमाल किया था। इसकी आलोचना करना अत्यंत आनंददायक था। इससे पता चलता है कि रोमन लोगों से पहले, बृहत ग्रीस में यूनानी उपनिवेशों में रहनेवालों की उपस्थिति कितनी शक्तिशाली थी ।

दक्षिण-पश्चिमी इटली बहुत सुन्दर है । समुद्र का किनारा ढलवाँ पहाड़ों से भरा है। राष्ट्रीय राजमार्ग प्रायः ५०-६० मीटर ऊँचाई वाले पुलों पर, समुद्र के ऊपर, अकल्पनीय दृश्य दिखाते हुए जाता है। रेजो कलाब्रिआ और मेसीना (सिसिली) - के बीच तीन किलोमीटर चौड़ाई का जलडमरूमध्य पड़ता है, जिसे नाव से पार किया जाता है। अभी तक मैंने कभी भी इतनी बड़ी नाव पर पैर नहीं रखे थे। इस जलडमरूमध्य को विशेष जगह माना जाता है। ऑडस्सी में दो राक्षसों ने ऑडस्सिअस की नाव उजाड़ दी थी। महाद्वीप को हम ने शाम के समय छोड़ा तथा रात के अंधकार में मेसीना पहुँचे। चेहरे को चाटती गरम हवा ने नाव की सबसे ऊपरवाली मंजिल पर बिताये समय को मनभावन बना दिया। टॉओर्मिना के पास होस्टल ढूँढ़ने में कुछ समस्या हुई । अंत में थके-माँदे आधी रात के करीब अपने-अपने बिस्तर पर पसर गए ।

६, सोमवार
आज के कार्यक्रम में सिसिली की शायद सबसे बड़ी विशेषता शामिल है । टॉओर्मिना का दृश्य शानदार है । यहाँ चट्टासनें खोदकर यूनानी थिएटर बनाया गया था। इसकी यवनिका के खंडहरों में से एट्ना ज्वालामुखी का बर्फ़ से मूँदा शिखर दिखाई पड़ता है। वैसे टॉओर्मिना सिसिली के जातीय सम्मिश्रण का अद्भूफ़त नमूना है। यह शहर यूनानियों ने ३९५ ई॰ पू॰ बसाया था ( इससे पहले यहाँ आदिवासी रहते थे)। इसके इतिहास के दौरान रोमानी, बाइज़ैंटीनी, अरब, नर्मन, जर्मन, स्पेनी और फ़्रांसीसी लोगों ने इस पर क़ब्ज़ा किया अलग-अलग समय पर कब्जा किया था । इसके अलावा हमने एक चौथी सदी के एक रोमानी मकान के खंडहर भी देखे। इसका तीन हज़ार वर्ग मीटर का पच्चीचकारी का फ़र्श अच्छी स्थिति में बचा हुआ है । हम शाम के समय सयराक्यूस पहुँच गए । हमारा होटल शहर से बाहर, संतरों का एक बाग़ में था । १७वीं शताब्दी में बना एक मकान था जिसका एक साल पहले उसका पुनर्णिर्माण हुआ था।

७, मंगलवार
मालिकों ने नाश्ते में संतरे का रस ही रस परोसा। शहर के केंद्र तक जाने में लगभग आधा घंटा लगा। सयराक्यूस बड़ा खूबसूरत शहर है। इसके प्रथम यूनानी नागरिक ८वीं सदी ई॰ पू॰ में यहाँ आये थे । प्राचीन काल के इलाकों में से बहुत कम बचे हैं – जो बचे हैं उनमें से एक है -विशाल थिएटर। अपने वैभवशाली दिनों में यह आलिक्संद्रिआ के साथ यूरोप के बड़े नगरों में से एक था। इसका पुराना केंद्र ओर्टीजा नामक एक द्वीप पर है जो छोटी सी नहर के द्वारा महाद्वीप से अलग है । मैंने अपने दोस्तों के साथ दोपहर का अच्छा भोजन बंदरगाह के पास “सीफ्रूट्स” का लिया। खैर, हम ओर्टीजा द्वीप पर घूमे - चारों और ठेठ सिसिलियन गलियाँ- कूचे थे, जो संकरे थे। जिनके ऊपर सूखते हुए कपड़े लहराते रहते हैं। इन गलियों से डोम स्क्वायर जा सकते हैं । शाम की धूप में चमचमाता सफ़ेद डोम साफ़-साफ़ बहुत सुंदर लग रहा था। मुझे बॉरोक शैली पसंद नहीं है। पर यह गिरजाघर आम नहीं था । बाह्य दीवारों के पीछे २००० वर्ष पुराना यूनानी गिरजा था जिसकी बाहरी दीवारों में २५-२५ मीटर के पुराने स्तंभ दिखाई देते हैं । रात तक घूमते रहे, दस बजे घर लौटे ।

८, बुधवार
आज सयराक्यूस से चलकर दो शहर देखे । जेला, जो प्राचीन काल में जबरदस्त नगर था, आज रोचक नहीं है । उसके एक्रोपोलिस व्यावहारिक दृष्टिकोण से पूरी तरह उजड़ गया था । उस की जगह आज संग्रहालय है जिसकी बॉल्कोनी से समुद्र के तट पर पेट्रोल कारख़ाना अच्छी तरह से दिखता है । दूसरा शहर बिलकुल अलग है- नोटो बारोक। नोटो १६९३ में भूकम्प के कारण उजड़ गया था, पर नागरिकों ने निश्चय किया था कि अपनी जन्मभूमि को नहीं छोड़ेंगे बल्कि शहर का पुनर्णिर्माण करेंगे । इस के अनुसार राजा ने बॉरोक शैली में काम करनेवाले कलाकार और वास्तुविद निमंत्रित किये थे तथा शहर को एक बार में और एक ही शैली में, लाल पत्थरों से बनवाया था । शाम अग्रिजेंटो पहुँचे यहाँ हम तीन रात बिताएँगे।

९, गुरुवार
अग्रिजेंटो वर्तमानकाल की अपेक्षा प्राचीन दिनों में बड़ा था, यहाँ कई लाख लोग रहते थे । आज हमने “गिरजाघरों की घाटी” नामक टीला देखा जो कल राजमार्ग से भी ठीक से दिखाई पड़ गया था। नाम शायद इस पर आधारित है कि टीला समुद्र और पहाड़ के बीच में है। यह पहाड़ से (जिस पर तो आधुनिक बस्ती स्थित है) नीचे है । यहाँ एक दूसरे से काफ़ी दूर लगभग दस यूनानी गिरजाघर हैं – इनमें से एक ही सर्वश्रेष्ठ रूप में बचा है। पर प्रमाण के बिना पक्की तौर पर नहीं कहा जा सकता कि किस देवता का था। हरेक गिरजा डोरिक किस्म का है । कॉर्थेग के आक्रमण (४०९ ई॰ पू॰) से पहले अग्रिजेंटो के लोगों को ज़िअस का एक नया गिरजाघर बनाने में कई साल लगे थे, जो अगर पूरा हुआ होता, ३० मीटर ऊँचाई, दस गुने घेरे के कारण यूनानी गिरजों में सबसे महत्वपूर्ण होता। खंडहरों के बाद हमने आधुनिक शहर भी देखा। पर वहाँ कोई ख़ास बात सामने नहीं आई । रात को दोस्तों के साथ समुद्र तट पर ऑइसेक्रीम खाने गया। इटली में सब कुछ बहुत महँगा है, सिवाय ऑइस्क्रीम के।

१०, शुक्रवार
मौसम काफ़ी ख़राब था परंतु आज के कार्यक्रम में सिर्फ़ बाहरी स्मारक चिह्न थे । तीन स्थान देखे । पहले इराक्लिआ मिनोआ जाकर दूसरे लोग संग्रहालय आ-जा रहे थे, तब तक मैंने हवादार समुद्र के तट की चट्टाानों के परिदृश्य का मज़ा लिया । बाद में सेलिनस गये जिसका नाम उसकी नदी के आधार पर रखा गया है। इस यूनानी शब्द का मतलब अजमोद है । खंडहर बड़े मैदान में फैले हुए हैं, एक भाग से दूसरे तक जाना बस से ही आरामदायक है, पर वहाँ गोल्फ़-गाड़ियाँ भी जुटाई गई हैं । सच बताऊँ, अग्रिजेंटो के बाद यहाँ कुछ रोचक नहीं था । केवल डेमेटेर मालोफोरोस के तीर्थस्थान के पत्थरों की बतायी कहानी चित्ताकर्षक लगी । तीसरा शाक्काे, एक ऐतिहासिक रुप का कस्बा था । दरअसल वहाँ सिर्फ़ एक घंटा बिताया । चारों ओर गुड फ़्रायडे के धर्माचार दिखाई पड़ रहे थे।

११, शनिवार
अगर कोई इतने खंडहरों को पसंद नहीं करता, तो भी ज़रुरी है कि उसे सेजेस्ता पसंद आए। जान लीजिए कि यूनानी धरती का शायद सबसे अच्छे रूप में बचा गिरजाघर है इस जगह है। यह प्रारंभ में यूनानी नहीं, पर यूनानी सांस्कृति से प्लावित आदिवासियों की बस्ती थी । देहात की तस्वीर बढ़िया है । ऊँचे पहाड़ों में से एक पर सेजेस्ता का एक्रोपोलिस था। यह पहाड़ों के घेरे के बीच, वसन्त की हवा में फलती-फूलती हुई एक पहाड़ी पर स्थित है । क़िले के ऊपर से इस की शोभा देखते ही बनती है । एरीचे इससे भी अनूठा लगा । वीनस की यह प्राचीन जगह समुद्र के नज़दीक ७५० मीटर ऊँचे पर्वत पर स्थित है। इसके अनुसार अप्रैल में भी जाड़े का मौसम है । आजकल अलीशान सम्मेलन करने के लिए बड़ा लोकप्रिय स्थान है, क्योंकि मध्य युग के दो दुर्गों में से एक में पुनर्णिर्माण करके उच्च स्तर का होटल चलता है।
पॉलेर्मो, सिसिली की राजधानी, हम लोग शाम के समय पहुँचे । अभी तक बहुत कुछ नहीं देखा, किंतु इतना मालूम है कि सिसिली का सबसे अजीब, धुंधला, भ्रष्ट, कुत्सित, फिर भी अपने खंडहरों से सुन्दरतम और सबसे ऐतिहासिक शहर यही है । होस्टेल के नज़दीक केंद्र के बीचों बीच जिस स्क्वायर में बस ने हमें पहुँचाया, वहाँ पॉलेर्मो का हरेक युग अपना प्रतिबिम्ब डाल रहा है । मैंने और मेरे दोस्त पेतैर ने दो व्यक्ति का एक कमरा ले लिया ।

१२-१३, रविवार-सोमवार
पॉलेर्मो की जनसंख्या सात लाख के आस-पास है। यह बड़ा या विशाल नहीं है, पर उसे देखने के लिए दो दिन काफ़ी कम थे । एक कहावत है कि जिसने पॉलेर्मो देखा हो पर मोंरिआले न जाए, बह अजान आता और मूर्ख ही चला जाता है । पॉलेर्मो से बाहर, आठ किलोमीटर दूर मोंरिआले एक पृथक बस्ती है । इसकी विशेषता एक कैथेड्रिल है - इसे सजाने के लिए लोग पॉलेर्मो वालों के साथ एक प्रतियोगिता किया करते थे। हालाँकि बाहर से पलेर्मो का बेहतर लगा, कुल-मिलाकर मोंरिआले ही जीतता है, क्योंकि इसका सारे का सारा अंदरूनी हिस्सा सोने की पच्ची्कारी से ढँका हुआ था जिसका जोड़ नहीं है । दोपहर के बाद रिमझिम होती वर्षा में हमने ऐतिहासिक केंद्र की सैर की । हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि जो इमारतें दिखने में तो शानदार थीं पर बहुत मैली थीं । कॉपुसिन मोंक्स का क्रिप्ट को देखना एक भयानक अनुभव था मेरे लिए। १६वीं सदी में एक साधु ने देखा कि यहाँ लाश गल नहीं रही थी। उसने इस घटना की घोषणा की कि यह ईश्वर का काम होगा । इसके अनुसार १८८० तक (इसके बाद परंपरा निषिद्ध कर दी गई) अमीर शहर वासियों का यह शौक था कि वे अपने शव इस मॉम्मिफ़ाइंग प्रभाव के तलघर की दीवारों पर लगवा देते थे। ८००० शवों का बड़ा भाग लगभग पंजर ही है, परंतु एक छोटी लड़की है (दो-तीन और भी हैं) जो मानो स्लीपिंग ब्युटी हो, उसकी देह पर एक भी धब्बा नहीं दिखता ।
दूसरे दिन प्राचीनकाल के वैज्ञानिक संग्रहालय से लौटकर, मैं अपने दोस्तों के साथ बंदरगाह और शहर के नये इलाके देखने गया । केवल उस समय हमें पता चला शहर को क्या हुआ था। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शहर का पुनर्णिर्माण नहीं किया गया, बल्कि उस खंडहर हुए शहर के बाहर एक नया शहर बनवाया गया है । पचास साल के दौरान अफ़्रिका से आने वाले शरणार्थी पुराने इलाकों में बसते चले गये, इनके पास पैसा नहीं है कि अपनी इमारतों का पुनर्णिर्माण करें । हम जब घूमते-घूमते बहुत थक गये, वहीं एक बड़ी दोस्ती मधुशाला में लौटे, जिसमें दो बार पहले खाना खा चुके थे।

१४-१५-१६, मंगलवार-बुधवार-गुरुवार
खैर, अब सफर खत्म होनेवाला है, फूलो-फलो सिसिली, हमें तो जाना है । पॉलेर्मो से बुदापेश्त, दो दिन की यात्रा। इस बार जलडमरूमध्य दिन के प्रकाश में पार किया तो तेज़ बहती हवा में, विस्तार से सब कुछ की आलोचना कर सका। रेजो कलाब्रिआ में संग्रहालय देखा, पर वैसे सीधे नेपल्स तक चले, वहाँ हम रात के ग्यारह बजे पहुँचे । हमें भूख लगी इसलिए खाना ढूँढ़ते हुए इलाके में एक चक्क र लगाया। नेपलेस पॉलेर्मो की तुलना में अलग है । जालफ़रेब दोनों स्थान पर है पर नेपल्स में अत्याचार, अपराध अधिक होते हैं । पॉलेर्मो की कूचे-गलियों में डर नहीं लगा, पर यहाँ गॉरिबल्दी स्क्वायर और रेलवे स्टेशन (शहर का बदनाम हिस्सा) का वातावरण बदतर था, जैसे कि बुदापेश्त में केलेति स्टेशन रात को । अंत में एक पिज़्ज़ा ढाबा मिला - खाना खरीदकर जल्दी से होटल लौटे ।
कल का सफ़र अच्छा बीता, आज तड़के बुदापेश्त पहुँच गये ।

कविताएँ






तीन प्रश्न
--बेर्नात माते

अपने कमरे में पाइप फूँककर
मैं मोटा धुआँ, बारिशहीन-बादल
छोड़ रहा हूँ,
दिन भर की रोटी आज
यह कड़वी हवा है
आज मुँह में।
टँगा हुआ बल्ब, सूरज के पास
बेरंग मक्खियाँ उड़ रही हैं
फट्टा, पेड़ की छाया में
मैं उनकी भिमभिनाहट सुनकर
सोचने लगता हूँ
यहाँ पश्चिम कहाँ है?
अपना सिर घुटनों के बीच में
डुबोना चाहता हूँ,
यहाँ से ऊपर कहा है?
बत्ती बुझ गई तो बाहर से
रोशनी आएगी?

*
प्रतिध्वनि
--वसिल मिंतशेव

हूँ फूलों से पूछ रहा
तुम क्यों न मुस्कराए ?
मैं बस पर एक स्टाप गया,
नहीं सुनी उनकी रुसवाई ।

हूँ वन से पूछ रहा
पेड़ तुम्हारे हरे क्यों न हुए?
मैंने एक और कागज़ बिगाड़ा
नहीं सुनी उनकी रुसवाई ।

हूँ पक्षियों से पूछ रहा
तुमने क्यों न गान सुनाए?
मैंने एक और बार स्नान किया
मैंने नहीं सुनी उनकी रुसवाई ।

अभी अकेला हूँ
कोई नहीं पूछ रहा
न ही किसीको दिया गया जवाब
न ही सुनी अपनी भी आवाज़।

*
वसंत
--रीता शिमोन

आता है जब बसंत,
हो जाती है प्रकृति हरी-भरी
खिलते हैं फूल प्यारे-प्यारे
खुशबु लडकियों के मन भाती,
धूप सुनहरी, नहीं जलाती,
हवा गुनगुनी चलती,
पक्षी छोटे-छोटे उड़ते आकाश में,
छात्र पढ़ते हिंदी क्लास में
पिकनिक पर जाते प्रेमी-प्रेमिका,
समुद्र में तैरते बच्चे
छाया में आराम करती बिल्लियाँ,
कुत्ते दौड़ते इधर-उधर
घर के पास,
रहता कोई आम के बाग में,
कोई रेस्तराँ में खाता
बसंत के आने पर लगता सब अलग-अलग,
जल्दी में है दुनिया, पर परेशान नहीं।

*
तालाब
--ऐदित बैनै

सूरज का लाल मंडल
परिवेश का चुंबन किया
इस बात से पहले कि डूबा
तालाब में, जहाँ बंद रहता है,
आकाश का रंग स्वर्ण जैसा था,
लेकिन अब धुँधला,
एक पर गिरा
तालाब का चेहरा,
अंतिम बार हिलता है।

याद घर की लोनेवाला में

--ईव मुदरा

एक बरसाती दोपहर,
लोनावाला,
चलती अपने घर में,
उभरा एक पुराना विस्मृत स्वप्न
फिर से, जिला दिया,
हवा, गंध, आवाज़ सब वैसा ही,
एक काल्पनिक चित्र सा
आकाश थोड़ा सा धुँधला,
सपनों सी उमस,
सडक खाली है,
सिर्फ वृक्ष,
मानसून के कारण जगी आग के गोले
खड़ें हैं शांत, मुक्त।
दिल की गर्मजोशी,
कुछ याद दिलाया...
घटा था कभी पहले, बहुत दूर


*
ध्यान में
--ईव मुदरा

तपन निकल गई थी बाहर,
छत से कक्ष की
जब हमने किया था ध्यान,
मन में विचार,
टहल रही हूँ कहीँ,
बुदापेश्त के किसी नए इलाके में,
मिलते हैं, मुझे कुछ टहलते पर्यटक,
इधर-उधर भटकती गाएँ और गाएँ
पीले, नारंगी कपड़े पहने कुछ बच्चे,
आती है गंध दालचीनी, मिर्च और करी की,
दिखते हैं कुछ ऊँट और व्यापारी भी,
अचानक चिड़ियों की तेज चहचहाट
गूँजती है कानों में
लगता है, भारत में हूँ,
जहाँ सब कुछ होता है
दस गुना ज्यादा, तेज़
मैं समझौता कर लेती हूँ,
मन मेरा हो जाता है शांत।


*
दोपहर बाद टहलना
--ईव मुदरा

मैं नगर में शांति से चलती,
काली छतें फैलाती गर्मी,
आसपास हैं बहुत भवन,
पर गली लगती है अंतहीन,
गुलाब की खुशबू मेरी चारों ओर,
शायद यह मुंबई है,
धुआँ, धूल, शोर, कोई बात नहीं,
समय, कोई परवाह नहीं,
बस चले चलो, चलते रहो।


*
बसंत
--ईव मुदरा

पेड़ो पर नईं कौंपलें,
चहकती चिड़ियाँ इधर उधर,
नाचती पंखुड़ियों से ढका सब कुछ,
सब कुछ नया, ताज़ा और हरा...
मुझे याद आता है
गहरा हरा रंग प्रकृति का,
लोगों के कपड़ों के विविध रंग
सलेटी, काला, सफेद,
सलेटी, सफेद, लाल, काला...
पत्तों की आवाज, धीमा सरकता ट्रैफिक...
यहाँ सब कुछ नियमानुसार, साफ-सुथरा..
सब कुछ योजनानुसार, कृत्रिम और नंगा,
कब तक चलेगा संसार इस तरह।
 

विश्वसुन्दरी इलोनका

--अनुवाद. मारिया नेज्यैशी

किसी गाँव में एक गरीब आदमी अपनी बेटी के साथ रहता था। उसकी बेटी इतनी सुन्दर थी कि लोग उसे दूर-दूर से देखने आया करते थे। सुन्दरता के कारण उसे विश्वसुन्दरी इलोनका कहा जाता था। विश्वसुन्दरी इलोनका की इतनी चर्चा थी कि उसकी कीर्ति राजा के कानों तक पहुँची। राजा युवा था और उसकी शादी भी नहीं हुई थी इसलिए विश्वसुन्दरी इलोनका की चर्चा सुनने के बाद वह रात-दिन बेचैन रहने लगा। राजा ने एक दिन अपने दरबारी चित्रकार को बुलाकर कहा-- विश्वसुन्दरी इलोनका के पास जाकर उसका चित्र बना लाओ। मैं देखना चाहता हूँ कि वह वास्तव में इतनी ही सुन्दर है जितना लोग कहते हैं। अगर वह बहुत रूपवती है तो मैं उससे शादी कर लूँगा।

चित्रकार विश्वसुन्दरी इलोनका के पास गयाए उसका चित्र बनाया और वापस आकर राजा को दे दिया।
- लीजिए महाराज जैसा यह चित्र है विश्वसुन्दरी इलोनका बिलकुल वैसी ही है । मैंने पूरे जीवन में इतनी सुन्दर लड़की कभी नहीं देखी। राजा ने चित्र देखा और देखता ही रह गया। आश्चर्य से उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं। उसने तुरन्त मंत्री को बुलाया और आदेश दिया कि छ: कोमल मखमली बग्घियों के घोड़ों पर साज़ चढ़वाये जाये और विश्वसुन्दरी इलोनका को उसके पूरे परिवार के साथ दरबार लाया जाये।
यह तो बड़ा आसान काम था जिसके लिए एक ही बग्घी काफ़ी होती क्योंकि विश्वसुन्दरी इलोनका के पिता के अलावा उसका कोई दूसरा न था। इलोनका को प्यार से बग्घी में बिठाया गया। पिता गाड़ीवान के पास बैठा और सब लोग राजधानी की तरफ़ चल दिये। वे कभी धीरे-धीरे और कभी तेज़ चले जा रहे थे कि कुछ समय बाद उन्होंने अपने को एक बड़े घने जंगल में पाया। वे जंगल के बीचों बीच थे कि अचानक सामने एक बूढ़ी औरत अपनी बेटी के साथ घ् टपक़ी। दोनों चुड़ैलों जैसी कुरूप थीं। बुढ़िया ने गाड़ी चलानेवाले से कहा - रुक जाओ गाड़ीवान मुझे बग्घी में बैठने दो। सेवा के लिए तुम्हें पुरस्कार मिलेगा।
- हट रास्ते से बूढ़ी चुड़ैलए बग्घी चलानेवाले ने डाँटकर कहा। क्या तुझे मालूम नहीं कि यह राजा की बग्घी है ?
यह बात सुनते ही विश्वसुन्दरी इलोनका ने बग्घी से बाहर झाँककर कहा- अरे इन्हें बैठने दो मैं चाहती हूँ कि आज का दिन सब के लिए शुभ हो।

उसने बूढ़ी़ औरत और उसकी पुत्री को अपने सामने बिठाया और फिर गाड़ीवान से कहा कि घोड़ों को हाँके। कुछ समय बाद वे एक बड़ी नदी के किनारे पहुँचे। वहाँ उस बूढ़ी चुड़ैल ने विश्वसुन्दरी इलोनका को पकड़ा और उसकी आँखें निकाल कर जल्दी से नदी में ढकेल दिया। गरीब आदमी और कोचवान ने कुछ नहीं देखा और वे बड़े आराम से गाडी चलाते रहे। जब वे दरबार पहुँचे तो राजा बग्घी के पास दौड़कर आया कि विश्वसुन्दरी इलोनका को स्वयं उतारे। पर बुढ़िया और उसकी बेटी को देखते ही स्तब्ध रह गया।
यह कुरूप लड़की तो विश्वसुन्दरी इलोनका नहीं है - राजा भयानक क्रोध से चिल्लाया।

इलोनका का पिता और गाड़ीवान उस लड़की को देख रहे थे। स्वर्ग और पृथ्वी की शपथ खा रहे थे कि वे विश्वसुन्दरी इलोनका को ही ला रहे थे। ये कुरूप औरतें कहीं जंगल में बग्घी पर चढ़ी थीं। लेकिन बुढ़िया भी स्वर्ग-पृथ्वी की शपथ खा रही थी कि वह उस गरीब आदमी की पत्नी है तथा यह लड़की उनकी बेटी विश्वसुन्दरी इलोनका है पर रास्ते में थोड़ी सी काली हो गयी है।
- तो ठीक हैए राजा ने कहा - अब भी मैं अपना वचन निभाऊँगा। अगर पहले मैं इस लड़की से शादी करने के लिए तैयार था जब यह सुन्दर थी तो कुरूप हो जाने पर भी मैं इससे शादी करूँगा। पर तुम्हें गरीब आदमी जीवन भर गिरफ्त़ार रखा जाएगा क्योंकि तुम अपनी बेटी की सुन्दरता की रक्षा नहीं कर सके। गरीब आदमी ने समझाने के बहुत प्रयास किया और कहा कि पूरी यात्रा में बग्घी बंद रही थी उसकी बेटी पर सूरज की किरन तक नहीं पड़ी थी। इस चुड़ैल ने मेरी बेटी को कहीं गायब कर दिया है। लेकिन चुड़ैल ने राजा को इस तरह समझाया कि उसने चुड़ैल की बात पर विश्वास कर लिया और गरीब आदमी को जेल में बंद करवा दिया।

उधर विश्वसुन्दरी इलोनका नदी में बहती रही। वह बहते-बहते दूर निकल गयी फिर कहीं किनारे आ लगी। वहाँ नदी के तट पर एक मछुआरे की झोंपड़ी थी। उस झोंपड़ी में एक बूढ़ा मछुआरा और उसकी पत्नी रहते थे। आधी रात के समय किसी के कराहने की आवाज़ से वे जाग गये। मछुआरे की पत्नी बोली- सुन रहे हो ? कोई बाहर रो रहा है ?
- हाँ मुझे भी रोने की सी आवाज़ सुनाई दे रही है- मछुआरा बोला -ए जाकर देखता हूँ बाहर क्या हो रहा है। बूढ़ा मछुआरा बाहर गया तो क्या देखता है कि एक तरबतर भीगी हुई लड़की अकेली बैठी है और रो रही है। जब उसने लड़की को ध्यान से देखा तो पता चला कि उस लड़की की आँखें नहीं हैं पर उसकी फूटी आँखों से आँसुओं की बारिश हो रही है। देखो आश्चर्य की बात यह है कि आँसुओं की हर बूँद एक-एक हीरे- मोती में बदलती जा रही है।
बूढ़े मछुआरे ने पूछा - बेटी तुम कौन हो ?
विश्वसुन्दरी इलोनका ने बता दिया कि वह कौन है और उसके साथ क्या हुआ है।
दुखी न हो बेटीए मछुआरे ने कहाए हमारे घर चलो। हमारा कोई बच्चा नहीं है। तुम पूरे जीवन हमारे साथ रह सकती हो।
लड़की ने उसे धन्यवाद दिया और उसके घर आ गयी पर रोती रही। वह हमेशा रोती रहती थी और उसकी फूटी आँखों से हीरे-मोती झरते रहते थे।
एक दिन बढ़े मछुआरे ने कहा- अब तुम्हारा रोना नहीं देखा जाता। मुझे उस समय तक चैन नहीं मिलेगा जब तक मैं तुम्हारी आँखें किसी तरह वापस नहीं ला दूँगा। वह अनगिनत हीरे-मोती साथ लेकर चल दिया। नगर नगर घूमकर हीरे-मोती बेचने के प्रयास करता रहा। सब औरतें - लड़कियाँ हीरे-मोती खरीदना चाहती थीं।
अगर कोई कीमत पूछता तो मछुआरा कहता
- इन हीरे-मोतियों की कीमत है सिर्फ दो आँखें। लोग यह सुनते ही मछुआरे पर हँसने लगते थे। क्या पागल बुड्ढा है। अपनी आँखें कौन देगा ?
चलते चलते वह राजधानी जा पहुँचा और सीधे विश्वकुरूपा रानी के पास जा पहुँचा। उसे खूबसूरत जवाहरात दिखाने लगा। रानी ने उससे पूछा कि इन जवाहरात के बदले कितने सोने के थैले दूँ।
बूढ़े मछुआरे ने जवाब दिया- आपके देश में जितना भी सोना है उस सब के बदले में भी मैं ये हीरे-मोती नहीं दूँगा महारानी। लेकिन केवल दो आँखों के बदले में यह सब आपको मिल सकता है।
इतने में बूढ़ी चुड़ैल अंदर आयी तो उसकी लड़की ने उसे सब बताया और बोली- यह बूढ़ा आदमी कैसी बेमतलब बातें कर रहा है।
चलो विश्वसुन्दरी इलोनका की आँखें उसे दे दो - बूढ़ी चुड़ैल बोली। तुम्हारे लिए वे वैसे भी बेकार हैं।
महारानी की खुशी का ठिकाना न रहा। विश्वसुन्दरी इलोनका की आँखें ढूँढ़ी गयीं और बूढ़े आदमी को दे दी गयीं। जब वह चला गया तो वे सब बूढ़े पागल पर खूब हँसे।

बूढ़ा आदमी चला गया और घर पहुँचने तक कहीं भी नहीं रुका । इस दौरान विश्वसुन्दरी इलोनका बस रोया ही करती थी। उसे विश्वास न था कि आँखें कहीं भी मिल सकती हैं। परन्तु उस बूढ़े मछुआरे कोे विश्वसुन्दरी इलोनका की आँखें मिल गयी थीं। उसने विश्वसुन्दरी इलोनका के आँखें लगा दीं। और तब क्या हुआ ? विश्वसुन्दरी इलोनको की सुन्दरता लाखों गुना बढ़ गयी।
कुछ समय बीता। एक दिन बूढ़ा मछुआरा विश्वसुन्दरी इलोनका के साथ मछली पकड़ने गया। वे नदी के किनारे मछली पकड़ रहे थे कि दो शिकारी नाव चलाते हुए उधर आ निकले। एक शिकारी विश्वसुन्दरी इलोनका को देखकर चिल्लाने लगा- अरे उस लड़की को देखो ?
- हाँ! दूसरे ने कहाए वह इतनी सुन्दर है कि उसे देखकर आँखें चौंधिया जाती हैं।
यह तो विश्वसुन्दरी इलोनका है। अगर न हो तो मेरा सर्वनाश होए पहले शिकारी ने कहा।
हाँ महाराजए यह विश्वसुन्दरी इलोनका ही है।
वे दोनों शिकारी राजा और उसका मंत्री थे। तुरन्त किनारे पर आकर वे लड़की की ओर दौड़े।
राजा ने नमस्कार करके पूछा- तुम्हारा क्या नाम है सुन्दर लड़की ?


लड़की जवाब देती है- पहले मुझे विश्वसुन्दरी इलोनका कहते थे पर अब मालूम नहीं कि मैं इस नाम के लायक हूँ भी या नहीं। अपने को आइने में देखे एक साल हुआ है।
अच्छा अगर तुम्हें अपने को आइने में देखे एक साल हुआ है तो कोई बात नहीं पर मेरा विश्वास करो कि अब तुुम्हारी सुन्दरता पहले से लाखों गुना बढ़ गयी है। तुम मेरे साथ चलो।
ज़रा रुक जाओए बूढ़े मछुआरे ने कहा -इस पर मेरा भी अधिकार है।
तुम क्या कर सकते हो। मैं राजा हूँ - शिकारी ने कहा।
विश्वसुन्दरी इलोनका बोल उठी- बूढ़ा मछुआरा ठीक कह रहा है महाराज क्योंकि मेरी आँखें ढूढ़ने का श्रेय उसी को जाता है।
उस के बाद विश्वसुन्दरी इलोनका ने जो कुछ हुआ था सब बता दिया। राजा ने मंत्री को दो बग्घियाँ लाने के लिए राजधानी भेजा। एक बग्घी में राजा स्वयं विश्वसुन्दरी इलोनका के साथ बैठा दूसरी में बूढ़ा मछुआरा और उसकी पत्नी बैठ गये।
वे जल्दी ही महल पहुँचे और जैसे ही बग्घी फाटक में मुड़ी वैसे ही राजा दूर से चिल्लाया- चुड़ैलो घर से निकलो ।
बूढ़ी चुड़ैल और उसकी लड़की को तुरंत राजा के सामने लाया गया और उन दोनों को बड़ी सज़ा दी गयी। विश्वसुन्दरी इलोनका के पिता को तुरन्त जेल से छोड़ा गया। राजा ने इतनी शानदार दावत दी कि उसकी ख्याति सात समुन्दर पार तक जा पहुँची।