शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

सितंबर के अंत में

शान्दोर पैतोफ़ि--

घाटी में घरेलू पुष्प अभी भी फूलते हैं,
पीपल खिड़की के सामने
हरे पत्तों से भरपूर है,
फिर जाड़ों को देख सकती है उधर?
बर्फ से पहाड़ी चोटी ढँकी जा चुकी है।
ज्वाला किरण गरमियाँ मेरे युवा दिल में
बसन्त की कोंपलें अभी भी बची हैं।
पर बाल मेरे, धूसर होने लगे अब,
जाड़ों के पाले ने सिर जकड़ लिया है।
मुरझाते हैं फूल, जीवन भाग जाता है,
अरी, प्रियवर मेरी गोद में आ बैठ जा।
तूने मेरी छाती से सिर टिका लिया है,
क्या कल गिरेगी मेरी समाधि पर?
ओ, बता दे - मरूँ तुझसे पहले,
लाश पर तो रो-रोके ओढ़ाएगी क़फ़न?
क्या किसी लड़के का प्रेम प्रेरित करेगा
ताकि नाम मेरा छोड़ दे उसके लिए?
यदि फेंक देगी कभी विधवा की ओढ़नी,
काले झंडे के रुप में, लटका मेरी क़ब्र पर,


में आ जाऊँगा मृतकों के अधम लोक से
और आधी रात को उसे ले लूँगा उधार,
कि मिटा सकूँ आँसू बहते,
तुम्हारे मेरी वजह से,
जो भूल गई होगी अपने सेवक को तुरंत,
बाँधूँ चोटों पर इस दिल की, तुझे
जो तब भी और वहाँ भी चाहेगा नित्य।

(अनुवाद-शागी पेतैर)

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