(अनुवाद-रॉबर्ट वालोत्सी व विराग कातालिन)
राजा मात्याश का एक सब से विश्वसनीय और प्रिय दरबारी था। राजा उस के बिना कहीं नहीं जाता था। एक दिन की बात है कि यह आदमी सड़ा हुआ पानी पीकर बीमार पड़ा और मरणासन्न हो गया। वह पेट के दर्द के कारण धरती पर लुढ़कते-पुढ़कते कराहने लगा। आखिर में उसका हाल ऐसा हो गया कि आँखें भी खुलनी बंद हो गईं। मृत्यु उसके दरवाज़े पर ख़ड़ी थी। उस की बीमारी की बुरी ख़बर सुनकर उसका इलाज़ जानने वाले एक हक़ीम वहाँ आया। उसने कहाः
"राज्य के सब से सुखी आदमी की क़मीज़ दूँढकर ले आओ, इसे पहना दो तो वह ज़िंदा रहेगा।"
यह सुनकर सुखी आदमी की क़मीज़ दूँढ़ने के लिए राजा के सौ घुड़सवार हज़ारों दिशाओं में निकल गए। उन्होंने सारे जंगल-बाग-कुंज छान मारे पर उन्हें कोई सुखी आदमी नहीं मिला। किसी ने झूठ-मूठ को भी नहीं कहा कि वह सुखी है।
मुँह लटकाये, पैर घिसटते हुए ये दल सैगैद से बुदा की ओर एक बीहड़ में से लौट रहा था। अचानक रेत के टीलों में से गुज़रती हुई बाँसुरी की सुरीली आवाज़ कानों में पड़ी।
राजा के दल में समझदार लोग होते ही हैं। उन्होंने सोचा कि बाँसुरी बजाने वाला ज़रूर प्रसन्न है और जो प्रसन्न है वह सुखी ही होगा।
वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि एक गड़रिया बाँसुरी बजा रहा है। उन्होंने उस से पूछाः
- क्या तुम सुखी हो?"
गड़रिये ने तुरन्त उत्तर दियाः
- जी जनाब, मैं सिर से पैर तक खुश हूँ।
- तुम क्यों सुखी हो?
- सूरज खूब चमकता है, समय पर वर्षा होती है, चारों तरफ़ हरे-भरे मैदान फैले हैं, भेड़ें फल-फूल रही हैं, उनकी ऊन घनी हो रही हैं, और वे खूब दूध देती हैं।
राजा के संदेश वाहकों ने घुटने टेके और सुखी गड़रिये से उसकी क़मीज़ माँगी। बदले में अनगिनत मोहरों से भरी थैली देने चाही।
गड़रिये ने घिसा-पिटा कोट खोलकर दिखाया तो उसकी गोरी खाल ही नज़र आयी।
और इस तरह राजा सुखी आदमी की क़मीज़ न मिल पाने के कारण राजा के सब से अच्छे और विश्वसनीय आदमी की मौत हो गई।
वाह!बहुत अच्छा लिखा है। सच में हम लोग सुखी होते हुए भी सुख और खुशी को महसूस करना नहीं चाहते।
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