तीन प्रश्न --बेर्नात माते अपने कमरे में पाइप फूँककर मैं मोटा धुआँ, बारिशहीन-बादल छोड़ रहा हूँ, दिन भर की रोटी आज यह कड़वी हवा है आज मुँह में। टँगा हुआ बल्ब, सूरज के पास बेरंग मक्खियाँ उड़ रही हैं फट्टा, पेड़ की छाया में मैं उनकी भिमभिनाहट सुनकर सोचने लगता हूँ यहाँ पश्चिम कहाँ है? अपना सिर घुटनों के बीच में डुबोना चाहता हूँ, यहाँ से ऊपर कहा है? बत्ती बुझ गई तो बाहर से रोशनी आएगी? * प्रतिध्वनि --वसिल मिंतशेव हूँ फूलों से पूछ रहा तुम क्यों न मुस्कराए ? मैं बस पर एक स्टाप गया, नहीं सुनी उनकी रुसवाई । हूँ वन से पूछ रहा पेड़ तुम्हारे हरे क्यों न हुए? मैंने एक और कागज़ बिगाड़ा नहीं सुनी उनकी रुसवाई । हूँ पक्षियों से पूछ रहा तुमने क्यों न गान सुनाए? मैंने एक और बार स्नान किया मैंने नहीं सुनी उनकी रुसवाई । अभी अकेला हूँ कोई नहीं पूछ रहा न ही किसीको दिया गया जवाब न ही सुनी अपनी भी आवाज़। * वसंत --रीता शिमोन आता है जब बसंत, हो जाती है प्रकृति हरी-भरी खिलते हैं फूल प्यारे-प्यारे खुशबु लडकियों के मन भाती, धूप सुनहरी, नहीं जलाती, हवा गुनगुनी चलती, पक्षी छोटे-छोटे उड़ते आकाश में, छात्र पढ़ते हिंदी क्लास में पिकनिक पर जाते प्रेमी-प्रेमिका, समुद्र में तैरते बच्चे छाया में आराम करती बिल्लियाँ, कुत्ते दौड़ते इधर-उधर घर के पास, रहता कोई आम के बाग में, कोई रेस्तराँ में खाता बसंत के आने पर लगता सब अलग-अलग, जल्दी में है दुनिया, पर परेशान नहीं। * तालाब --ऐदित बैनै सूरज का लाल मंडल परिवेश का चुंबन किया इस बात से पहले कि डूबा तालाब में, जहाँ बंद रहता है, आकाश का रंग स्वर्ण जैसा था, लेकिन अब धुँधला, एक पर गिरा तालाब का चेहरा, अंतिम बार हिलता है। | याद घर की लोनेवाला में --ईव मुदरा एक बरसाती दोपहर, लोनावाला, चलती अपने घर में, उभरा एक पुराना विस्मृत स्वप्न फिर से, जिला दिया, हवा, गंध, आवाज़ सब वैसा ही, एक काल्पनिक चित्र सा आकाश थोड़ा सा धुँधला, सपनों सी उमस, सडक खाली है, सिर्फ वृक्ष, मानसून के कारण जगी आग के गोले खड़ें हैं शांत, मुक्त। दिल की गर्मजोशी, कुछ याद दिलाया... घटा था कभी पहले, बहुत दूर * ध्यान में --ईव मुदरा तपन निकल गई थी बाहर, छत से कक्ष की जब हमने किया था ध्यान, मन में विचार, टहल रही हूँ कहीँ, बुदापेश्त के किसी नए इलाके में, मिलते हैं, मुझे कुछ टहलते पर्यटक, इधर-उधर भटकती गाएँ और गाएँ पीले, नारंगी कपड़े पहने कुछ बच्चे, आती है गंध दालचीनी, मिर्च और करी की, दिखते हैं कुछ ऊँट और व्यापारी भी, अचानक चिड़ियों की तेज चहचहाट गूँजती है कानों में लगता है, भारत में हूँ, जहाँ सब कुछ होता है दस गुना ज्यादा, तेज़ मैं समझौता कर लेती हूँ, मन मेरा हो जाता है शांत। * दोपहर बाद टहलना --ईव मुदरा मैं नगर में शांति से चलती, काली छतें फैलाती गर्मी, आसपास हैं बहुत भवन, पर गली लगती है अंतहीन, गुलाब की खुशबू मेरी चारों ओर, शायद यह मुंबई है, धुआँ, धूल, शोर, कोई बात नहीं, समय, कोई परवाह नहीं, बस चले चलो, चलते रहो। * बसंत --ईव मुदरा पेड़ो पर नईं कौंपलें, चहकती चिड़ियाँ इधर उधर, नाचती पंखुड़ियों से ढका सब कुछ, सब कुछ नया, ताज़ा और हरा... मुझे याद आता है गहरा हरा रंग प्रकृति का, लोगों के कपड़ों के विविध रंग सलेटी, काला, सफेद, सलेटी, सफेद, लाल, काला... पत्तों की आवाज, धीमा सरकता ट्रैफिक... यहाँ सब कुछ नियमानुसार, साफ-सुथरा.. सब कुछ योजनानुसार, कृत्रिम और नंगा, कब तक चलेगा संसार इस तरह। |
बुधवार, 14 अप्रैल 2010
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