शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

कर भला हो भला

रीता जुली शिमोन

यह नीतिवचन शायद दुनिया के सब देशों में लोकप्रिय है। इसे अधिकांश लोग सत्य भी मानते हैं, क्योंकि यह सभी के द्वारा स्वीकार किया जाता है। लेकिन उन लोगों की संख्या बहुत कम है, जो यह सत्य पहचानकर इसके अनुसार जीना चाहते हैं। अगर हम टीवी देखते हैं या इंटरनेट पर कुछ पढ़ते हैं, या बुदापैश्त के एक अधिक भीड़ वाले भाग में टहलते हैं, तो हमें ऐसा लगता है कि लोग इस बात में अभी विश्वास नहीं करते । सभी जगहों पर अनुभव कर सकते हैं कि लोग सिर्फ अपने अपने काम में संलग्न हैं, उनके सपने बहुत बड़े हैं, जिन्हें मन लगाकर पूरा करने के लिए पागल हैं। जैसे एक टॉप कॉलेज में पढना उसके बाद एक उच्चकोटि का काम मिलना, सफल बनना, अमीर बनना। लेकिन इस का मतलब क्या है ज़िन्दगी में ? हम सभी मर जाते हैं और हम अपने पैसे से खुद को सुरक्षित नहीं कर पाते। ज़िन्दगी के मतलब के बारे में शायद मरने के आसपास ही सोचने लगते हैं, और जीवन के बहुमूल्य क्षण देते हैं।

इस नीतिवचन के सम्बन्ध में मुझे अलग-अलग उम्र के लोगों के अलग-अलग विचार मिले: उनमें से युवा लोग कहते हैं कि वे दूसरों की मदद नहीं करते क्योंकि इससे उस व्यक्ति की ओर से सिर्फ नुकसान आता है। एक और युवा ने बताया कि वो दूसरों कि चिंता बिलकुल नहीं करता, सब भट्टी में जा सकते हैं। एक मध्यम उम्र के आदमी ने लिखा कि वह मदद करना महत्त्वपूर्ण मानता है क्योंकि वह मदद किसी दूसरे रूप में वापस आती है, और शायद सिर्फ हमारा दृष्टिकोण गलत है।

हमारी इस समस्या के लिए एक समाधान है, यह है परमेश्वर। अगर हम अपना पूरा भरोसा उसमें लगाते हैं तो वे हमें दिखा देंगे हम आप-पास वाले लोगों से कैसे स्नेह कर सकते हैं। इसके बाद लोग अपनी इच्छा के अनुसार नहीं सोचेंगे, पर दूसरों की सहायता निःस्वार्थ भाव से करेंगे।

पवित्र बाइबल में हम यीशु जी के शब्द पढ़ सकते हैं:

"माँगो तो तुम्हें मिलेगा, ढूँढो तो तुम पाओगे, खटखटाओ, तो तुम्हारे लिए द्वार खोला जाएगा। क्योंकि जो कोई माँगता उसे मिलता है, और जो ढूँढ़ता है वह पाता है, और जो खटखटाता है उसी के लिए द्वार खोला जाता है। तुममें से ऐसा मनुष्य कौन है जो पुत्र के रोटी माँगने पर पत्थर दे? या मछली माँगने पर साँप दे? अतः जब तुम बड़े होकर अपने बच्चों को अच्छी वस्तुएँ देना जानते हो तो तुम्हारे स्वर्गीय पिता भी माँगनेवालों को अच्छी वस्तुएँ क्यों नहीं देंगे? इस कारण जो कुछ तुम चाहते हो कि मनुष्य तुम्हारे साथ करें, तुम भी उनके साथ वैसा ही करो, क्योंकि व्यवस्था और भविष्यवक्ताओं की शिक्षा यही है"। (मत्ती ७:७-१२)



मैं "दयालु समारी का दृष्टान्त" की कहानी बताती हूँ-

एक मनुष्य यरूशलेम से यरीहो जा रहा था कि डाकुओं ने घेरकर उसके कपडे उतार लिए, और मार पीटकर उसे अधमरा छोड़कर चले गए। ऐसा हुआ कि उसी मार्ग से एक याचक जा रहा था, परन्तु उसने देखा और कतराकर चला गया। इसी रीति से एक लेवी उस जगह पर आया वह भी उसे देखकर कतराकर चला गया। परन्तु एक सामरी यात्री वहाँ आ निकला और उसे देख कर तरस खाया। उसने उनके पास आकर उसके घावों पर तेल और अंगूर रस ढालकर पट्टियाँ बाँधी और अपनी सवारी पर चढ़ाकर सराय में ले गया और उसकी सेवा टहल की। दूसरे दिन उसने दो दीनार निकालकर सराय के मालिक को दिए और कहा "इसकी सेवा टहल करना और जो कुछ तेरा और लगेगा, वह मैं लौटने पर तुझे दूँगा। अब तेरी समझ में जो डाकुओं से घिर गया था, इन तीनों में से उसका पड़ोसी कौन ठहरा? उसने कहा "वही जिस ने उस पर दया की। यीशु ने उससे कहा, "जा, तू भी ऐसा ही कर"। (लूका १०:३०-३७)

मैं और क्या कह सकती हूँ? सब कुछ बताया गया है। क्या तुम निस्वार्थ प्रेम महसूस करना चाहते हो? तुम हमेशा अपनी इच्छा देखकर दूसरों की सेवा कर सकते हो। परमेश्वर और उसके पवित्र पुत्र, ईसा मसीह की सहायता से।

"तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी शक्ति और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख और अपने पडोसी से अपने समान प्रेम रख।" (लूका १०:२७)

अगर तुम दूसरों को भी अपने सामन प्रेम करोगे। तुम दूसरों को जो दोगे वही तुम् वापस मिलेगा। दूसरों की सेवा का इंतज़ार मत करो। तुम्हें परमेश्वर से पारितोषिक दिया जाएगा।

(यह लेख भगवान की सेवा में समर्पित है।)

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