बुधवार, 12 जनवरी 2011

मेरा विभाग ही मेरी साधना है, मेरे छात्र ही मेरा पुरस्कार हैं- प्रोफेसर तोत्तोशी चाबा

शागी पेतैर द्वारा लिया गया साक्षात्कार


प्रोफेसर चाबा तोतोशि आजकल सेवानिवृत्त हो चुके हैं, इसलिए उनके पास महाकृति, लेटिन मॉन्दॉतन (लेटिन वाक्य संरचना)  को पूरा करने के लिए पर्याप्त समय है। यह पुस्तक धीरे-धीरे आकार ग्रहण करती जा रही है। वे अपने लिए तो अपने लिए वरन् छात्रों के लिए भी नित्य बड़ी-बडी कसौटियाँ रखते थे। कोई उनसे प्यार किया करता था तो कोई नफरत, पर यह निश्चित है उनके प्रभाव से बच नहीं पाया। उनके अध्ययन के आभामंडल के तेज से बच पाना असंभव ही था।


प्रोफेसर तोतोशि को  गत वर्ष भारत सरकार की संस्था राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान की ओर से उनकी संस्कृत  कार्यसिद्धि पुरस्कार प्रदान करने की घोषणा की गई। इस अवसर पर उनका साक्षात्कार पढ़ सकते हैं। प्रोफेसर तोतोशि के लंबे जीवन और सक्रिय कार्यकाल में विश्व, विश्व में समाज पूरी तरह से बदल गया है और वे आपने जीवन में भी बड़े परिवर्तन के साक्षी रहे। परिवर्तन तथा विकास के। उनकी गति अटूट रही और अपनी योजनाएँ यथेच्छ पूरी कर सके। अध्यापन में लेटिन और यूनानी के क्षेत्र से संस्कृत तक चले आए। हंगरी में भारतविद्या के अध्ययन-अध्यापन की जनक और स्थापक माना जा सकता है। उनकी आपबीती सुनाने का तरीका कुछ ऐसा था कि मुझे ऐसा लगा यह भी शुकसप्तति जैसी एक विविधतापूर्ण कहानी है जो मेरी आँखों के सामने साकार हो  रही है।

पेतैर शागि– हंगरी के वैज्ञानिक समाज में आपका जीवन अनूठा है। पिछली प्रणाली में अनेकानेक अल्पज्ञानी  पर महत्त्वाकांक्षी लोग उच्‍च पदों पर आसीन तथा अकादमीय सदस्यता हासिल करते दिखाई पड़ रहे हैं, आपका इस बारे में क्या नज़रिया है, सोच है?
प्रोफेसर तोत्तोशी चाबा–मैं तब मात्र ग्यारह साल का था, जब मैंने अध्यापक बनने का निश्चय किया था और बारह का, जब मैंने विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बनने का। मुझे एक पारिवारिक दोस्त की बात ने बहुत ज्यादा उत्तेजित किया था: विश्वविद्यालय में अध्यापक वह नहीं पढ़ाते जो पाठपुस्तकों में लिखा होता है, बल्कि वह जो उनके अपने चिंतन का परिपाक होता है। मेरे पिता ने इस पद को पाने का रास्ता दिखाया, साथ यह भी कहा कि यह एक महान चीज़ है, इससे और भी बड़े पद की कल्पना करना भी मुश्किल है। इस कारण मैं अधिक महत्त्वाकांक्षी नहीं था, और अपना यह लक्ष्य पा लेने के कारण पूरी तरह से संतुष्ट हूँ।
पे.शा.– ऐसे में आपको ज्यादा अहम क्या लगता था- अपने शोध का परिणाम पढ़ाना या किसी को अधिक बुद्धिमान बनाना?
प्रो. तोतोशि–किसी को बुद्धिमान बनाना। मैं इसलिए कभी भी नहीं पढ़ाता कि अपनी विद्वत्ता प्रदर्शित करूँ। मेरे छोटे भाई को उसका गणित का अध्यापक उत्तीर्ण नहीं करना चाहता था। तब मैं उसे सुकरात (सोक्रातीस) की प्रश्नात्मक पद्धति से सिखाने लगा, और उसके सहारे विद्यालय की ७वीं कक्षा तक वह प्रथम श्रेणी का हो गया। मेरा काम इतना ही था मैं प्रश्न पूछूँ और उसे हल खोजने दूँ।
पे.शा.– तो क्या भाई के अलावा औरों को भी पढ़ाना भी जल्दी ही आवश्यक हो गया?
प्रो. तोतोशि–मेरे पिता विद्यालय में हंगेरियन, जर्मन तथा इतिहास पढ़ाते थे। वे 1943 में सेवानिवृत्त हो चुके थे जब उनका स्वर्गवास हुआ। कहा जा सकता है कि अच्छा हुआ, वरना साम्यवादी प्रणाली में उनको जहर के घूँट पीने पड़े होते। 1918-19 की वामपंथी टकराव के दौरान भी उन्हें निलंबित किया गया था। हमारा वंश ऊँची जात का है, भले ही गरीब हो गया था। पुराने दस्तावेज़ो में 1335 से ही एक दुर्गाध्यक्ष तोतोशि का ज़िक्र प्राप्त है। मेरे पुण्य पिताजी कहा करते थे कि उनकी पढ़ाई अधूरी रह गई होती, यदि उनके गाँव में एक यहूदी न होते, जो दस मोहरें देने के लिए तैयार हो गए थे। इसके नाते ही वे अध्यापक बन सके। यह पद उस समय बढ़िया आजीविका जुटाता था। हमारे पास दो हवेलियाँ थीं और बालातोन झील के किनारे एक आरामघर। हमारी ५ कमरों वाली मुख्य हवेली के साथ, निजी पुस्तकालय भी 9 फरवरी 1945 को, जर्मन फौज़ के आक्रमण के आखिरी दिन भस्म भर रह गई । पिताजी ने कहा था कि मर्द कभी डरता नहीं है। इस वजह से उस दिन भी मेरे दिल में भय नहीं था। मेरी उम्र तेरह साल थी फिर भी  मैं जलते हुए मकान से बंदूकों की गोलियों की बौछार में सबसे पहले भाई को बगल में लिए सड़क पार करके दूसरे घर में शरण लेने पहुँच गया।
1945 में जब घर और आरामघर के सरकारीकरण हो गया, माताजी का विधवादेय भी रद्द कर दिया गया, तब से  परिवार के गुजारे के लिए मुझे पैसे कमाने पड़े। लेटिन सिखाने लगा, उस दौर में अंतिम ऐस्तैर्हाज़ि के  राजकुमार का अध्यापक मैं ही था। भले ही बाद में माताजी को नए सिरे से पैसे मिलने लगे, पर मैं आजीवन उन्हें अपने वेतन का आधा हिस्सा देता रहा।
पे.शा.– आप प्रत्येक विषय में प्रतिभाशाली थे, अंततः लेटिन व यूनानी क्यों प्रधान हुईं।
प्रो. तोतोशि–कामयाबी, मैं ऐसा समझदार बच्‍चा था जो नीति के अनुकूल चलता है। पिता से सीखा था कि जिसकी अंतरात्मा पवित्र हो, वह शांति से सो सकता है। इसलिए में आराम से सोता था और अभी भी सोता हूँ। जब दादीजी दशादेश समझाती थीं। वहाँ तक आ पहुँचे कि चोरी करना अपराध है, तो उन्होंने कहा कि इसका विस्तार करना व्यर्थ है, क्योंकि हमारे परिवार में ऐसा हो ही नहीं सकता। मुझे छलना भी नहीं आता, मेरी रुचि केवल श्रेष्ठ समाधान में है। जैसे मेरे लिए मन में गिनना शौक-सा था। एक बार जब मैंने कक्षा में सब से पहले उत्तर दे दिया, पट्ट पर उससे अलग परिणाम लिखा गया। सब हँसने लगे, लेकिन मैं अड़ गया, जानता था कि मेरा उत्तर सही है। अंत में साबित भी हो गया कि सारी क्लॉस ही नहीं अध्यापक भी गलत थे। पर तारीफ़ कभी किसी ने नहीं की, यह तारीफ़ ही एकमात्र ऐसी चीज़ है जो मेरी जिंदगी से ग़ायब है। लेकिन लेटिन क्यों? तेरह साल का था जब लेटिन अध्यापक ने कहा, प्रशासक चाहते हैं कि लेटिन सिर्फ माध्यमिक स्कूल की उच्‍च कक्षाओं में पढ़ाई जाए। सुनते ही मुझे गुस्सा आया, 1945 में भी मेरी प्राथमिकता थी कि हमारी पुरानी, परंपरागत लेटिन- तथा यूनानीनिष्ठ संस्कृति जीवित होती जाए। कई साल बाद प्रोफेसर त्रैंचेञि-वल्दप्फ़ैल ने मुझे लेटिन-यूनानी प्रचारिणी समितियों का सचिव बनाया और 1990-1992 में नई प्रणाली चालू और मजबूत होने, तथा खतरा खत्म होने तक मैं इनमें काम करता रहा।
पे.शा.– आप विश्वविद्यालय में उस समय पढ़ते थे जब विद्या से जाति को ज्यादा अहमीयत देते थे। उस बेहाली से भी आपको कुछ नुकसान हुआ?
प्रो. तोतोशि–1949 में सरकार ९० प्रतिशत दाखिला किसान-मजदूर संतानों को देने में व्यस्त थी। कोई भी यह स्वीकारने के लिए तैयार नहीं था कि मेरे नाम की वर्तनी द्वित्य टी, द्वित्य एस व वॉय से होती है। सब का व्यवहार मेरी ओर घटिया रहा। शुरू में लेटिन और यूनानी के साथ हंगेरियन साहित्य भी पढ़ता था, लेकिन उसमें अपने खानदान के मारे अच्छे अंक पाने की संभावना न के बराबर थी, तो दो साल बाद छोड़ दिया। वह प्राध्यापक जिसने पिता का मित्र होने के नाते माताजी से वादा किया कि इस हालत में विश्वविद्यालय में मेरी देखभाल करेगा, वह भी गलियारे में मुझे पहचानना भी नहीं चाहता था।
पे.शा.– अंततः आपको विश्वविद्यालय में नौकरी कैसे मिली?
प्रो. तोतोशि–ऐसा लगता था कि ऐसी नौबत नहीं आएगी, कुछ नहीं मिलेगा। पहले से भी शर्त थी कि प्रोफेसर केवल किसी ओत्वोश कॉलेज में पढ़े हुए छात्रों में से ही कोई बन सकता है। ऐसा न हो कि राजधानी के धनाढ्य युवक, रईसजादे भी कुछ पा सकें। फिर यूनानी विभाग में थोड़ी संभावना होने लगी, जो उस समय अध्यापक बनने के करीब थे, अलग क्षेत्र में शोध करते थे। प्रोफेसर त्रैंचेञि-वल्दप्फ़ैल नहीं चाहते थे कि प्रोफेसर हर्मत्ता विभागाध्यक्ष बनें,इसलिए उन्होंने उनके लिए भारोपीय अध्ययन विभाग खोल दिया। यहाँ जुलाई 1953 से मुझे भी प्रो. हर्मत्ता के पास काम करने का मौका मिल गया। उनका नजरिया था कि मैं कुछ भी अपने-आप सीख सकता हूँ। 1971 तक विभाग में हर्मत्ता और मैं दोनों थे, और मुख्य रूप से अपने शोध के साथ-साथ लेटिन व्याकरण पढ़ाते थे। वैसे विभाग खोलने की अनुमति इसलिए मिली, क्योंकि 1952 में महाभाषावैज्ञानिकस्टालिन ने मार्क्सवाद का परित्याग किया और भारोपीय भाषा परिवार की धारणा की चर्चा और अध्ययन-अध्यापन करना जो नात्सी युग के दौरान बदनाम हुआ, फिर से मुनासिब हो गया।
लेटिन विभाग की एक अध्यापिका, स्वर्गीय इलोना कोमोर ने पहली बार सुझाव दिया कि मुझे संस्कृत भाषा सीखनी चाहिए  अगर भारोपीय तुलनात्मक भाषाविज्ञान में जाना है। मैंने सलाह मानी। पहले विश्वयुद्ध से पूर्व हंगरी में जो संस्कृत जानने वाले विद्वान थे, वे तब तक गुजर चुके थे। उस समय कोई संस्कृतविद् तो था ही नहीं, बल्कि समाजवादी शासन के सबसे कठिन दौर में विदेशी किताबों-पाठपुस्तकों का भी घोर अभाव था।
पे.शा.– इस परिस्थिति में आपने संस्कृत कैसे सीखी?
प्रो. तोतोशि–आरंभ में मेरे पास फ़िक का व्याकरण और एकमात्र शब्दकोश था, वह भी बहुत अच्छा नहीं। उस समय भारत के विषय में सारी किताबें एक ही अलमारी में पाई जा सकती थीं। आज कई गुना अधिक हैं। हफ्ते में चालीस घंटे संस्कृत पढ़ता गया, और एक कठिन पाठ चुना अनुवाद करने के लिए। यह हुआ शुकसप्तति यानी तूतीनामा, जो थोड़ी देर में मेरी पीएच.डी. का विषय बन गया। पहली बार इसे निर्णायक समिति के सामने प्रस्तुत करने की औकात 1956 में आई, पर मेरे छोटे भाई की क्रांति में भागीदारी और कैद की सज़ा की वजह से यह अनुमति निलंबित हो गई, और दुबारा मौका सिर्फ 1962 में मिला। उसी साल शुकसप्तति का अनुवाद भी छपा।
पे.शा.– 1956 की क्रांति के नाते कई अध्यापकों को विश्वविद्यालय से जाना पड़ा।
प्रो. तोतोशि–हाँ, ऐसा हुआ। मैं 23 अकतूबर को भी पढ़ा रहा था और मैंने अपने सारे छात्रों को भाग न लेने की सलाह भी दी। नहीं मानी, मेरी पसंदीदा छात्रा ने गोली खाकर दम तोड़ दिया। वास्तव में अगर कोई उस समय समाचारों और अंतर्राष्ट्रीय वातावरण को नजरंदाज करता था, तो उसको स्पष्ट था, सवाल तक नहीं उठा, कि क्रांति सफल हो सकती। परिस्थितियाँ इसके खिलाफ थी।
पे.शा.– आप अपनी जगह रहे और उसी साल हंगरी में इकलौते संस्कृतविद् होते हुए भी भारतविद्या पाठ्यक्रम चालू कर सके।
प्रो. तोतोशि–हंगरी के नेता भारतविद्या कॉर्स चालू करके भारत को प्रसन्न करना चाहते थे, और मंत्रालय यहाँ तक होशियार था कि अगर यह विभाग है, जिसके नाम में भारत शब्द पाया जाता है, तो तुरंत काम हो जाएगा। बधाई कि नेताओं की फरमाइश पहुँचने तक मुझे प्रचुर मात्रा में संस्कृत आने लगी थी। 1957 से लंबी मुद्दत तक संस्कृत मैं ही पढ़ाता था, प्रो. हर्मत्ता का क्षेत्र भारोपीय और ईरानी भाषाविज्ञान रहा। इसलिए कि मैं देर तक संस्कृत पढ़ाने के लिए अकेला था, इस क्षेत्र में मेरा अध्ययनसंबंधी काम ज़्यादा रहा, जबकि शोधकर्ता का काम लेटिन के क्षेत्र में करता था। कुल-मिलाकर साढ़े ४८ साल पढ़ाता था, और लेटिन व्याकरण पढ़ाना ४७ साल तक मेरी वरीयता थी। लेटिन व्याकरण के प्रस्ताव को पूरी तरह से नया रूप दिया, और फिलहाल लेटिन वाक्यनिर्माण विषय पर अपना बृहद वाक्यविज्ञान लिख रहा हूँ।
मैं  इंडोलोजी पढ़ाना, संस्कृत के पाठ पढ़ना और समझाना - विशेषतः जटिल शुकसप्तति को - मन का विलास मानता आया हूँ। यह एक अनूठी संस्कृति है जिसमें ३००० वर्षों से लगातार कृतियों को वाचन या लिखित रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने की अटूट परंपरा है। संस्कृत भारोपीय भाषाओं का आधारभूत आकार है, कठिन विषय। मेरा दायित्व था कि मूर्खों को इसकी ओर से फेरूँ। मेरी कक्षा में छात्र रोया भी करते थे, पर इसलिए नहीं कि यह मेरा आशय था। निकष से डरते थे। मेरे लिए हमेशा स्वाभाविक रहा, कि किसी चुनौती का हल पा सकता हूँ। जिसमें इतना आत्मविश्वास नहीं है, वह निश्चित तौर से बेबस बैठेगा, पर नाम तो नहीं कमा सकता।
पे.शा.– क्या आपने पहले भी कभी भारत की यात्रा की है?
प्रो. तोतोशि–हाँ, दो बार जा चुका हूँ। पहली बार 1972 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यलय के एक सम्मेलन में शामिल हुआ और 1982 में वाराणसी में आयोजित एक बैठक में भाषण दिया। वैसे कई और भाषावैज्ञानिक सम्मेलनों में भाग लिया था पूरे विश्व में।
पे.शा.– आपके छात्र कहते हैं कि आप सिर्फ तथ्य नहीं पढ़ाते थे, आप यह सिखाते थे, कैसे, जरा बताइए।
प्रो. तोतोशि–हाँ, कोई ऐसी लड़की भी मेरी छात्रा रही जिसकी भारत से खास रुचि नहीं थी, लेकिन वह जानती थी कि मेरे साथ वह अपनी बुद्धि और तेज़ कर सकती है, जैसा कि उस पर सान धरती हो। मुझे प्रसन्नता होती है कि भारोपीय अध्ययन विभाग में जिसका अध्यक्ष प्रोफेसर हर्मत्ता के सेवानिवृत्त होने के बाद, 1987 से मैं रहा, वे ही पढ़ते हैं, जो मेरी बातें मानते थे और जिनकी मनोवृत्ति मेरे अनुकूल है। मैं हर दूसरे साल केवल दो छात्र पढ़ाता था, जिन्हें ३०-३५ उम्मीदवारों में से चुनता था। इन्होंने भारतविद्या, इस अद्भुत क्षेत्र में एक-एक विषय अपना अध्ययन का केंद्र बनाया और सब बेहतरीन निभाते हैं। मेरी शान है कि ३७ स्नातक छात्रों में से अनेक पीएच.डी. तक पढ़े हैं और सात यहाँ या दुनिया की किसी दूसरी संस्था में विश्वविद्यालय के स्तर पर अध्यापक व शोधकर्ता हैं। मेरा मानना है कि एक अध्यापक नसैनी जैसा है, जो अपने काम में तब कामयाब होता है जब अपने छात्रों को अपने आप से ऊपर पहुँचा सकता है।

प्रोफेसर तोतोशि छात्रों की पीढ़ियों के लिए अपनी कहावतों और आदतों के कारण सुप्रसिद्ध हो गए। कोई भी यह नहीं भूल सकता -कि उनकी कक्षाएँ रात के आठ से बारह बजे तक हुआ करती थीं,  -कि वे छात्राओं के लिए टैक्सी बुलाते थे, कि केवल उस कक्ष में प्रवेश करते थे जिसका कम से कम तापमान पच्‍चीस-तीस डिगरी होता था, -या कि दोनों कलाइयों में घड़ी बाँधते थे, फिर भी अक्सर देर से आते। पर सबसे पहले सभी  को यह याद आता  है कि  उनके रूप में एक भद्र मानव और एक  महान वैज्ञानिक ने एक ही शरीर का रूप धारण कर लिया है।

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