सुच वैरोनिका
हिन्दू धार्मिक परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण कल्पना है, कि ज़मीन यानि पृथ्वी और देश अर्थात भारत खुद देवी-देवता हैं। उनका लोग माता के समान आदर करते हैं। भारत, भारत माता के नाम से पूज्य है। पृथ्वी और देश की सेवा, देश की सेवा है और इनके लिए फूलों के बजाय भक्तों की शहादत का प्रस्ताव किया जाता है।
स्वतन्त्र भारत में मातृभूमि के देवी होने की कल्पना आज तक चली आ रही है। भारत के राष्ट्रगान में, जो रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखा और गीतबद्ध किया गया था, यही वातावरण दिखाई देता हैं। यह गीत सब से पहले १९११ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सम्मेलन के अवसर पर कोलकाता में गाया गया था, और १९५० में भारत का राष्ट्रगान हुआ। जन गण मन किंग जोर्ज के राजतिलक दरबार के लिए लिखा गया था, इसलिए समकालीन समाचारों ने विचार-विमर्श के साथ इसका स्वागत किया। राजनिष्ठ लोगों की नज़र में ठाकुर ने इस गान में अंग्रेज़ी अधिकारों की स्तुति की है, राष्ट्रवादी गाकर कृष्ण भगवान की प्रशंसा करते हैं। दोनों पक्ष अपनी बात साबित करने के लिए गान की उन्ही पंक्तियों का हवाला देते हैं। उनका एक अर्थ है, कि सिंहासन पर बेठा भारत-भाग्य-विधाता, जो अपनी माता के साथ भारत को स्वप्न से जगाता है किंग जोर्ज है और माता अंग्रेजों की महारानी, मेरी हैं। दूसरा अर्थ है, कि शंख बजाने वाला सारथी शायद अंग्रेजों के प्रति विरोध की प्रेरणा देते हुए कृष्ण हैं। माता, जो जन गण को गोद में लेती है, इस बार कोई देवी, संभवतः भारत माता होना चाहिए। मेरी राय में गान में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की योग्यता विशेष प्रकार से दिखाई देती है। उन्होंने कविता समझ-बूझकर ऐसा लिखा है, कि उससे दोनों पक्ष संतुष्ट होते हैं। १९११ में भारत और अंग्रेजों का सम्बन्ध राजनीति का मर्म-स्थल था। यद्यपि ठाकुर स्वतंत्रता आन्दोलन का समर्थन करते थे, जब उच्च दरबार ने उनका इस अवसर पर गीत लिखने का अनुरोध किया, उन्होंने ऐसा गान लिखा, जो अंग्रेजों को भी पसंद है। बहुत उपदेशपूर्ण है, कि ठाकुर ने इस विवाद पर सिर्फ २६ वर्ष बाद उत्तर दिया, जब भारत की ग्रेट ब्रिटेन से अधीनता कम हो रही थी। १९३९ में कवि ने ज़ोर से इनकार किया, कि जन गण मन और किंग जोर्ज के बीच सम्बन्ध की कोई संभावना है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का राष्ट्रीय गान का वातावरण और आम भावना बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा रचित राष्ट्रीय गीत, वन्देमातरम् के ही समान है। यह गीत भारत माता की संकल्पना की पहली और आज तक की शायद सबसे लोकप्रिय अभिव्यक्ति है। चटर्जी का उपन्यास, आनंद मठ १८८२ में लिखा गया, जब भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन सशक्त होने लगा। निबंध की कथावस्तु का क्षेत्र बंगाल हैं, जहाँ हिन्दू सैन्यवादी संन्यासी और मुसलमान बादशाहों और उनकी अंग्रेज़ी संधियों के बीच झगड़ा उठता है। सन्यासी अपने आप को बच्चे बुलाते हैं और उनकी युद्ध की पुकार वन्दे मातरम् है। बच्चों ने कसम खाई, कि वे अपने परिवारों का भी त्याग करते हैं, जब तक माता स्वतन्त्र नहीं है। निबंध के नायक का कहना है, कि "हमारी जन्मभूमि हमारी माता हैं।" यह कल्पना स्पष्ट करने के लिए नायक वन्दे मातरम् गीत गाने लगता है:
"वन्दे मातरम् सुजलां सुफलां
मलयजशीतलाम् सस्य श्यामलां मातरम्।"
इसमें भारत देश का आदर देवी के रूप में किया किया जाता है। बनारस में भारत माता का एक मंदिर है, जो इस भावना का प्रकटीकरण है, उसे देखकर भारत माता की कल्पना स्पष्ट होती है। दिअना एल ऐक की बनारस: सिटी ऑफ़ लाईट शीर्षक किताब में पढ़ा जा सकता है, कि मंदिर के गर्भगृह में देवी की मूर्ति के बजाय भारत देश का नक्शा प्रस्तुत है। भक्त उसकी पूजा करते हैं।
चटर्जी के गीत में भारत माता फसल के खेतों के कारण गेंहुए रंग की हैं, उनकी मुस्कान चाँदी, चन्द्रमा है। मगर ये विशेष गुण न सिर्फ अलंकार के रूप में लिखे गए हैं, देवी का शरीर दरअसल भारत देश की ज़मीन है। देवी प्रकृति या विश्व के बराबर हैं। यह कल्पना अक्सर ऐसे ही प्रकट की जाती है कि उनके शरीर के अंग पृथ्वी के अलग-अलग हिस्से हैं। देवी भागवत पुराण में लिखा है, कि पर्वत देवी की हड्डियाँ हैं, जैसे नदियाँ उनकी नसें, पेड़ उनके बाल, सूर्य और चाँद उनकी आँखें हैं। एक शिलालेख में पढ़ा जा सकता है, कि कुमारगुप्त ने पूरी पृथ्वी पर शासन किया, जिसके स्तन सुमेरु और कैलास पर्वत हैं।
इस भारत-देवी संकल्पना की दूसरी जड़ तीर्थों में हैं। भारत पवित्र स्थानों से पूर्ण है: पर्वतों, चट्टानों, गुफाओं, नदियों ओर तालाबों की अक्सर ख़ास शक्ति है, जो किसी देवी-देवता से सम्बंधित नहीं है। वे अपने आप में पवित्र हैं, और अगर इन जगहों पर मंदिर भी बनवाये गये, वह सिर्फ इनकी पवित्रता पर निशान लगाने के लिए स्थापित हैं। खुद मंदिर इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितनी की उसकी भौगोलिक स्थिति। अगर हम भारत का एक ऐसा नक्शा ध्यान से देखते हैं, जिस पर पवित्र जगहें दिखाई देती हैं, तो यह समझ में आ जाता है। भारत के समाज की सांस्कृतिक-ऐतिहासिक एकता पुरानी कथाओं, जन-श्रुतियों और इतिहास से सम्बंधित पवित्र स्थानों द्वारा दृढ़ की गयी है। भारत के इस "ज़िंदा भूगोल" ने भी भारत माता संकल्पना को जन्म दिया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के जन गण मन में यह भौगोलिक पवित्रता स्पष्ट होती है, विशेषकर जब गंगा और यमुना का ज़िक्र किया जाता है। भारत माता की कल्पना आज तक बहुत ही लोकप्रिय हैं, आम लोगों और राजनीति में भी। भारत में सब लोग उसके आकार से अच्छी तरह से परिचित है, जिसका सब से पहला आधुनिक चित्रण अवनींद्र नाथ टैगोर ने किया है। वे आम तौर पर केसरी साड़ी या तिरंगा पहने और हाथ में झंडा लेकर चित्रित होती हैं। बगल में सिंह या शेर दिखाई देता है, जो दुर्गा देवी का वाहन है, जैसे चटर्जी के निबंध में भी भारत माता और
दुर्गा हमेशा एक जैसी हैं।
सब से अहम् बात है, कि इसी तस्वीरों पर भारत माता आम तौर पर भारत के नक़्शे पर खड़ी है, जो देवी और देश की एकता पर विशेष रूप से ज़ोर देता है। मैं दिखाना चाहती थी, कि इस कल्पना के पृष्ठभूमि में न सिर्फ देव-देवताओं की कथाएँ अहम् है, बल्कि ऐतिहासिक घटनाओं और राजनीति द्वारा प्रेरित साहित्य की भी बड़ी भूमिका है। उन्हीं रूपों में भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का गौरव, साहित्यकारों और कलाकारों का योगदान भारत की उस कल्पना से मिलता है, कि भूमि न सिर्फ निर्जीव प्रकृति, बल्कि प्राण से व्यथित पवित्र जगह है। जब मैंने शीर्षक में "पवित्र भूगोल" लिखा है, मैंने यह सोचा, कि राजनीतिक हदों से सीमित देश, धार्मिक सम्मान से पूज्य ज़मीन और भारतीय लोगों की सामूहिक चेतना एक पवित्तर रूप, भारत माता में संयुक्त है।
thats why we should not sing jan gan man
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