मंगलवार, 11 मई 2010

कुम्भ मेला और रथ यात्रा हरिद्वार, २०१०

साश ओर्सोल्या--

सड़कों पर लोगों का सागर, नदी में रंगों का हलचल, धुप ही धुप में अनंत पदयात्रा, साधुओं की घुमावदार पंक्तियाँ।।। यह है हरिद्वार का दृश्य कुम्भ मेले के समय। जिसको भीड़ कहते हैं यह उससे दसगुना ज़्यादा थी। बिना देखे इसकी कल्पना तक की जा नहीं सकती, कि एक पूरा शहर लोगों से इतना कैसे भर सकता है, कि कहीं-कहीं पैदल जाना भी असंभव हो। कभी थकाऊ, कभी डरावनी तो, पर यह अनुभव कभी भूलने लायक हो नहीं सकता।
दरअसल कहानी दिल्ली में ही शुरू होती है, जब ट्रेन स्टेशन पर पहुँच कर पता चलता है कि हरिद्वार जानेवाली गाड़ी में इतने लोग जम गए हैं, कि दरवाजे पार करना भी संभव नहीं है। अगर जाना है, और जाना तो ज़रूर था - फिर एक खुली खिड़की से घुसना पड़ता है। यह रही कुम्भ की भीड़ की पहली झलक। फिर हरिद्वार पहुँच कर, जो शहर मैंने पहले शांति के द्वार के रूप में पहचाना था, अब महागड़बड़ी का रूप दिखाता है। पहली नज़र से इस सब खलबली में कोई मतलब ही नहीं दीखता। लोग अविश्वसनीय संख्या में हर तरफ चलते रहते हैं और नदी में ढेर सारे लोग स्नान करते रहते हैं। इसका मतलब कुम्भ की कहानी जानने से ही स्पष्ट होने लगता, जो एक दोस्त ने ऐसे सुनाई।
शुरू विश्व की उत्पत्ति से करनी है। पहले हुए ब्रह्मा, विष्णु और फिर शिव। फिर भारतीय लोग पैदा हुए। उसके बाद मनुष्यों के जीवन में नीति दिलाने के लिए भगवान ने देवताओं और राक्षसों को उत्पन्न किया। तब से देवता और राक्षस लगातार लड़ते रहते थे, पर कोई भी एक-दूसरे को हरा नहीं पाया। लड़ते-लड़ते दोनों दलों के सदस्य मरते जा रहे थे पर फायदा नहीं निकला। फिर उन्होंने भगवान के पास जाकर पूछा, कि भला क्या करें ताकि अंत में निश्चित कर सकें कि उनमें से उच्च कौन है और नीचा कौन। भगवान ने सुझाव दिया, कि वे समुद्र मन्थन करें, यों देवताओं व राक्षसों ने एक पहाड़ उल्टा कर लिया और नाग वासुकी को इसके चारों और मरोड़ कर मन्थन की तैयारी की। फिर देवताओं ने सुझाव दिया, कि राक्षस लोग वासुकी के पूँछवाले हिस्से को पकड़ लें और वे सिरवाले हिस्से को पकड़ेंगे। राक्षसों ने यह तुरंत इनकार कर दिया यह कहकर कि हमको पूँछ क्यों पकड़नी है जब देवताओं के पास सर ही रहेगा। पर देवता लोग बहुत चतुर थे, उनको पता ही था, कि वासुकी के ७ सिरों में से दो ज़हरीले होते हैं, और मन्थन करते समय उनसे ज़हर छिड़कता रहेगा। इस तरह राक्षस अपने आप ही ज़हरीले हिस्से को पकड़ने के लिए बेताब हुए। यह भी तय हुआ, फिर मन्थन शुरू हुआ। इसके दौरान समुद्र से तरह तरह कि चीजें (रत्न) निकलने लगीं, जैसे लक्ष्मीजी निकलीं, हीरा निकला, जो सब प्रार्थनाओं को पूरा करता है, ज़हर निकला, जिसको निगलकर शिवजी ने दुनिया के जीवों को बचा लिया और नीलकंठ नाम पाया, क्योंकि ज़हर ने उसके गले में नीला रंग डाला। फिर अंत में समुद्र से एक मटके या कुम्भ में अमृत निकला, यानि अनंत जीवन देनेवाला रस। जैसे ही अमृत निकल पड़ा समुद्रदेव ने इसको छीन लिया और इसे पकड कर भाग गया। राक्षस उसके पीछा करने लगे फिर दोनों मटके के ऊपर लड़ने लगे। लड़ने के दौरान अमृत के ४ बूँदें भारत के ४ स्थानों में धरती पर पड़ीं। इनमें से एक है हरिद्वार। लोग मानते हैं, कि जिस समय नक्षत्र उसी तरह का है, जैसा मन्थन करने के समय था, तब इन स्थानों पर नदियों में अमृत बहता है, जिसमें स्नान करने से सारे पाप मिट जाएंगे, स्वास्थ्य और मोक्ष पाया जाएगा। नक्षत्र के हिसाब से ऐसी स्थिति १२ साल में एक बार होती है। तब महाकुम्भ मेला मनाया जाता है, जैसे इस बार हरिद्वार में हुआ। फिर ६ साल बाद, जब नक्षत्र करीब उसी तरह का बनता है, अर्ध कुंभ मेला होता है।
कुम्भ के ठीक दिन हरिद्वार के मुख्य घाट पर सिर्फ साधू लोग स्नान करते हैं। तब भीड़ इतनी होती है कि घाट के ऊपर वाले पुल और आसपास के सड़कों को सरकार जनता के लिए बंद कर देती है, ताकि कोई साधुओं की भीड़ के बीच में पड़कर, मारा न जाए। इसके बावजूद भी हर बार कुम्भ के समय कुछ लोग भीड़ में मर जाते है, जैसे इस साल भी हुआ इस घाट पर।
इस बार साधुओं का स्नान १४ अप्रैल को पड़ा, जिस दिन मैंने भी मुख्य घाट तक पहुँचने का प्रयास किया ताकि असली तीर्थ यात्रा के कम से कम थोड़े से अंश का अनुभव मिले। जनता का स्नान वैसे महीनों से होता आ रहा था। न सिर्फ भारत के कोने-कोने से, पर विदेशों से भी लोग आते रहे गंगा में स्नान करने के लिए। गंगा का जल वैसे भी भारत में सबसे पवित्र माना जाता है और साल भर हिन्दू तीर्थ यात्रा का मुख्य लक्ष्य रहता है। पर कुम्भ के समय इसको विशेष महत्त्व दिया जाता है।
गंगा घाट की ओर चलते चलते भीड़ बार बार रोका गया था, ताकि सड़क पर साधुओं के जुलूस के लिए जगह बने। कभी साधू लोगों का समूह पैदल आ रहा था, फिर बड़े बड़े, धन से सजे हुए ट्रक्स के ऊपर गद्दी पर बैठे बड़े-बड़े गुरु लोगों के क्रम भक्तों से घिरे हुए दिखने लगे। मेरे दोस्त के अनुसार प्राचीन काल में राजा लोग साधुओं को राजा का पद दे सकते थे, इसके साथ ही मिलता था रथ पर यात्रा करने का अधिकार। इसकी समानता में आजकल साधुओं की रथ यात्रा होती है, जिसका मतलब कि भक्त लोग उनको राजा के बराबर मानते है। दिखने में शायद वैष्णव भक्तों की प्रचलित रथ यात्रा के समान लगती होगी, जब भगवान कृष्ण की मूर्ति को सजे हुए रथ पर बिठाकर भक्त लोग रथ को हाथ से खींचते हुए शहर में चक्कर लगाते हैं। बहरहाल वैष्णव रथ यात्रा भक्ति भाव का इशारा होता है, भगवान की निस्वार्थ सेवा जिसको भक्त लोग अपना राजा नहीं पर सखी मानते हैं।
१३ अप्रैल को कुम्भ के आलावा वैसाखी का दिन भी था। वैसाखी खेत काटने का त्यौहार होता है, जो कुछ प्रदेशों में मनाया जाता है, और सूर्य की यंत्री पर आधारित नए साल की शुरुआत है। इस अवसर पर प्रेम नगर आश्रम में ३ दिन का एक बड़ा आध्यात्मिक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। मैं इस आश्रम में पहले भी रह चुकी थी और अब भी इस कार्यक्रम के लिए गयी थी। कुम्भ मेला और वैसाखी का कार्यक्रम जुड़ा होने का परिणाम यह हुआ, कि प्रेम नगर खुद भी शहर की नक़ल बन गया था। आश्रम के अन्दर भी विशाल भीड़ इकट्ठी हुई, लोग हर जगह पर सोते थे इन ४-५ दिनों में छत से लेकर सड़कों के किनारों तक। आश्रम में भी गुरु सतपाल जी महाराज, उनकी पत्नी और बेटे की रथ यात्रा कार्यक्रम का अंश था। पर ये लोग कुम्भ के भीड़ में शामिल नहीं हुए, प्रेम नगर की रथ यात्रा बाकी जुलूसों से हटकर जा रही थी, शहर में एक चक्कर लगाकर आश्रम से आश्रम तक लौटकर। बहरहाल, गुरु महाराज जी की अकेली रथ यात्रा के पीछे भी एक किलोमीटर लम्बी भीड़ थी। वे लोग सुन्दर तरीके से सजे हुए रथों पर बैठे थे जो ट्रक और घोड़ों से खींचे गए थे। आश्चर्य की बात यह है, कि रथ आश्रम से निकल भी पाए उस भीड़ के बीच जिससे घिरे हुए थे। पर अंत में धीरे धीरे निकल पाए और यात्रा शुरू हुई, फिर लगभग आधे दिन में आश्रम में लौट आयी। भीड़ में महात्मा, यानि साधू लोगों के समूह, आश्रमवासी लोग और निश्चित रूप से सैकड़ों भक्त लोग शामिल थे। गुरुजी कि रथ यात्रा गुरु को 'आत्मा का राजा' मानने के अलावा उसका प्रतीक भी है, कि उनके भक्त उनकी शरण में आकर कितने खुश होते हैं, और वे इसी ख़ुशी को, सबको दिखाने की इच्छा से रथों का पीछा करते रहे। घंटों तक तेज़ धूप में पैदल चलकर, नाचकर, गाकर, ख़ुशी मनाकर। उनके हाथों में पकड़े झण्डे गुरुजी के कुछ सन्देश प्रस्तुत करते थे, जैसे 'एक राष्ट्र, एक ध्वज, एक आत्मा!' देश की एकता और भाईचारा का सन्देश जाति, मत पर बेपरवाह, या भारत के राष्ट्रीय ध्वज पर लगा 'मानव धर्म' का चिह्न सच्चे धर्म का सन्देश, जिसको भारत से निकलकर पूरी दुनिया तक पहुँचाना गुरुजी का लक्ष्य है। फिर भारत के ऐतिहासिक महापुरुषों के चित्र दिखाते थे कि गुरु महाराज किनके पदचिन्हों पर चलते जा रहे हैं। भगवान के अगले अवतार के रूप में, जैसे उनके भक्त लोग मानते हैं।
गुरुजी ने कुम्भ मेले के बारे में बताया था, कि प्राचीन काल में इस समय साधू लोग राजाओं के कर्मों की जाँच करते थे, कि उनके राज्य में देश और जनता का भला होनेवाला है या हानि। उस वक्त राजा लोग साधुओं के सामने सर झुकाकर खड़े होते थे। पर आजकल कुम्भ का मतलब भी बिगड़ गया। सैकड़ों साधू लोग एक दूसरे से लड़ते-लड़ते गंगा स्नान के लिए दौड़ रहे हैं और हजारों गुरु लोग तरह तरह के असंभव चमत्कार का वादा करके भक्तों को अपने पास खींचने की कोशिश कर रहे हैं। शायद इसी कारण सतपाल जी महाराज पूरे कार्यक्रम के दौरान कुम्भ मेला से दूर रहे थे, पर उनको इस तरह के प्रचार करने की ज़रूरत होगी ही नहीं। उनकी रथ यात्रा में उनका जाँच स्पष्ट हो चुका था न सिर्फ उनके साधू लोगों, पर सारे भक्तों के द्वारा, जिन्होंने खूब खुशियाँ मनाकर उनका साथ दिया और उनको हार्दिक धन्यवाद अभिव्यक्त किया उसके लिए कि गुरुजी के शरण में आकार उनका जीवन लाभ और ख़ुशी से भरा रहता है।

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