शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

भारत में पहले अनुभव

शागी पेतैर--

आगरा पहुँचने के बाद दो हफ़्ते बीत गए हैं। सबसे पहले दिन मैंने सोचा था कि एक साल तक यहाँ रहना काफ़ी मुश्किल होगा। अभी भी यह सोच रचा हूँ, लेकिन क्यों? इसमें तो परिवर्तन हुआ।
मेरा पहला दिन बिलकुल कठोर था। यहाँ का वातावरण हंगेरी की तुलना में बहुत ज़्यादा गरम नहीं है, पर हवा में गीलापन अधिक है, इसलिए पसीना निकलता रहता है। रात को देनैश और मैं जल्दी से सोने गए क्योंकि बिजली चली गई थी। वह रात बिना पंखे और मच्छरदानी के, असह्य् और लम्बी लगी। इसके साथ अपने प्रियवरों को याद करता रहा। भविष्य में भी अवश्य किया करूँगा। अब मालूम है मुझे, विरह का क्या मतलब है। मैंने सोचा था कि एक वर्ष समय नहीं है, और मैं यहाँ इतना काम करनेवाला हूँ कि पता नहीं चलेगा कि समय बीतता है। यह सच नहीं है। स्कूल सिर्फ़ इस हफ़्ते से शुरू हो गया, इसी तरह पिछले दो सप्ताहों में बाज़ार जाने और अपना नया व्यक्तिगत क्षेत्र बनाने के अलावा मैंने बहुत कुछ नहीं किया था यानी एक दिन को दूसरे दिन से धीरे-धीरे पीछे करता रहा।
धोबी ढूँढ़ना परिश्रम था। डोल या बाल्टी का इस्तेमाल करके नहाना पहले से ज्ञात पद्धति से कम आरामदेह लग रहा है। स्वीकार कर चुका कि बिजली और पानी कभी-कभार चले जाते हैं। इसके सामने जो लगता है, हमेशा की परेशानी रहेगा, वह खाना है। हमारे यहाँ बार-बार सर्वश्रेष्ठ भारतीय भोजन बनाने और छात्रावास का आम खाना खाने में अंतर है। फ़िर अभी अच्छे अनुभव भी हो रहे हैं। छात्रावास में नए-नए दोस्त बन रहे हैं। वैसे मेरी पास अनेक योजनाएँ हैं कि इस वर्ष के दौरान किस-किस जगह को देखना होगा। आश्चर्य की बात है यहाँ कितनी विशेषताएँ हैं। इसलिए मैं सोचने लगा कि इस साल मेरा सबसे बड़ी परेशानी यह होगी कि सीखने-पढ़ने के अलावा ज़ंसकार (लद्दाख) से कांचीपुरम तक अधिक से अधिक देख लूँ। भारत के विभिन्न चेहरों से परिचित होकर हंगेरी लौटूँ। फ़िलहाल मैं महसूस कर सकता हूँ कि यहाँ मेरा स्वागत है।
सितंबर का अंत दूर नहीं है, यानी इसी समय एक ही कविता की याद हम सब स्वभावतः करते हैं। इसका हिंदी अनुवाद कुछ इस प्रकार है-

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