सोमवार, 5 अप्रैल 2010

डॉ. कामिल बुल्के

--एवा अरादि

मैं फादर कामिल बुल्के से अपनी पहली भेंट के बारे में लिख रही हूँ। मैं उनसे 1975 में नागपुर में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन के अवसर पर मिली थी। एक बैठक के बाद में उनके पास गई और मैंने उनका आशीर्वाद माँगा। उन्होंने मुझे आश्चयर्य से देखाष मैंने बताया कि मैं एक कम्यूनिस्ट देश से आई हूँ। हमारी वर्तमान सरकार ने मठवासीय पादरी-संघ को बंद कर दिया है। मैंने अपने देश में एक लंबा सफेद गाउन पहननेवाले किसी पादरी को बहुत समय से नहीं देखा है। मैंने बताया कि मैं एक धार्मिक क्रिस्चियन हूँ लेकिन अपने देश में सिर्फ छिपकर चर्च जा सकती हूँ। उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया और मेरे माथे पर अपने हाथ से क्रास बनाया। मैं बहुत खुश हुई।

मैं उनसे दूसरी बार 1976 में मॉरिशस के द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन के समय मिली। उन्होंने मुझसे प्रतिज्ञा की कि वे अपने अंग्रेजी हिंदी शब्दकोश की एक कॉपी मेरे लिए भजे देंगे। नवंबर 1976 में उन्होंने शब्दकोश की एक कॉपी वास्तव में भेज दी। शब्दकोश के पहले पृष्ठ पर फादर ने अपना समर्पण भी लिखा। यह कोश और समर्पण दोनों ही मेरे लिए बहुमूल्य हैं। मैं इसे देखकर फादर कामिल बुल्के का स्मरण करती रहती हूँ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. " अपने मन की बात को बयान करती हुई एक अच्छी कविता..."

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  2. सभी कविताएँ अच्छी हैं मगर "अहसास रंग-बिरंगा" की बात ही निराली है....."

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