शनिवार, 1 मई 2010

याद अपने देश की

शागी पेतैर--

दो महीने बाद ऐसा लग रहा है कि भारत में समय घर की तुलना में जल्दी से बीतता है, मेरी चाह आज यह है कि ज़रा रुके कि इस देश को अच्छी तरह जाँच सकूँ। कभी-कभी हंगरी की भी याद आती है, लेकिन यह तुरंत नहीं कि हमारा राष्ट्रीय त्यौहार समाप्त हो गया है। पहले सोचता रहा, पत्रिका के लिए क्या लिखुँ। अर्थात जो यहाँ उल्लेखनीय घटता है, अपने ब्लोग में उसके बारे में विस्तार से लिखता हूँ, दो बार एक ही विषय का वर्णन करना रोचक काम नहीं है। वैसे भी, भारत के मुद्दों को हिंदी में बताना विशिष्ट नहीं है। हमारा २३ अक्तूबर इसी तरह मेरे बड़े हित में ही है।

कहा जाता है कि हमारे दो राष्ट्रगान हैं। औपचारिक कोल्चेइ का हिम्नुस मानते हैं, किंतु वोरोश्मर्ति के सोज़त की महत्व भी असंदिग्ध है। दोनों एक ही अवधि के परिणाम हैं। हालाँकि किसी कवि को भी १८४८ की क्रांति तक ज्ञात हो नहीं सका था। उन्होंने अतीत इतिहास की वेदनाओं को अभिव्यक्त करते हुए आनेवाले डेढ़ सौ वर्षों की कठिनाई की उपयुक्त भविष्यवाणी तो की ही, साथ-साथ वोरोश्मर्ति ने सर्वोच्च विवरण किया है। हिम्नुस परमेश्वर की ओर प्रार्थना की रूप में लिखा गया है, जब कि सोज़त नागरिक को अपने हंगेरियन भाव के संबद्ध धर्म का स्मरण दिलाता है। यह दूसरा मुझे हमेशा अधिक उत्तेजक लगा।

२३ अक्तूबर का तिगुना महत्त्व है। १८४९ में हंगेरियन सेना या बचे हुआ प्रतिरोधी दलों को अंतिम रुप से हरा दिया गया था। १९५६ की क्रंति, जिसका स्मरण मुख्यतः करते हैं, इस तिथि से आरंभ हुई थी, फिर १९८९ में गणराज्य भी इस दिनांक को विस्थापित किया गया था। इस अवसर की प्रतिष्ठा में मैंने सोज़त का निम्नलिखित हिंदी अनुवाद तैयार किया।

उद्गान


स्वदेश की सेवा सदैव

करते रहो, मज्यार !

पालना है यह, पश्चात समाधि भी,

जो ढँकता है बढ़ाए।

विश्व में अलावा इसके

जगह नहीं है तेरे लिए,

आशीष दें अथवा शाप भगवान,

यहाँ जीना, मरना ही पड़ेगा।

यह है भूमि, जहाँ प्रायः

पिताओं का रक्त बहा,

यह जिसमें हरेक संत नाम

शतियों से है जुड़ा हुआ।

यहाँ वीर आर्पाद ने

आवास स्थापित किया,

हुञद की बाँह ने दासता

समाप्त कर दी यहाँ।

आज़ादी, तेरे लाल ध्वज

यहीं ढोए जाते,

हमारे उच्‍चतम नष्ट हुए

लंबे युद्ध के नाते,

पर इतने ही दुःख में,

कितने भैर के बाद,

कम होकर - तोड़े न

अपने देश में गण बचा,

भूमंडल, करोड़ लोगों का निवास,

तुझे गर्व से संबोधित करता

हज़ार साल का कष्ट जीने,

मरने का निर्णय चाहता !’

इतने दिलों का रक्तपान

व्यर्थ नहीं हो सकता,

नहीं, कि देश के लिए

टूट असंख्य निष्ठ जी पड़े,

हो नहीं सकता, कि मन,

बल, अतिपवित्र इच्छा

विफल क्षीण हो जाएँ

शाप-बोझ के द्वारा।

आएगा, आना पड़ता है

श्रेयः युग, उसके बाद

प्रार्थना आ जाएगी

लाखों के होंठों पर,

या आएगा - तो आ पड़े

संतोषनीय निधन,

शवाधान के ऊपर

देश रक्त से दलदली।

क़ब्र को, जिसमें गण हमारा

डूबता है, जातियाँ घेरती हैं,

करोड़ो जनों की आँखें

भिगोईं शोक के आँसू ने।

सेवा सदैव करते

रहो स्वदेश की, मद्यर!

इसने जी दिया, गिर जाए,

टीले से तब ढँकेगा।

विश्व में अलावा इसके

जगह नहीं है तेरे लिए,

आशीष दें अथवा शाप भगवान,

यहाँ जीना, मरना ही पड़ेगा।

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