बुधवार, 12 मई 2010

मैसवाले

पैतेर शागी--

कुछ देर बाद आ चुका जो पहले से भी सोचता था, कि कभी मैस में मुझे भी बुलाया जाएगा। वक्‍त उड़ रहा है, तो हमारा एक महीने का काम खत्म होनेवाला है और अपने अनुभव बता सकता हूँ।

पिछले साल तक संस्थान में मैस को निर्देश मंडल चलाता था, खरीदारी रसोईवाले करते थे, वे ही खाना पकाते थे। लेकिन यह स्थिति बदल गई, जब छात्रों ने खाने के बारे में इतनी शिकायत की कि निर्देशक ने पैसों को बाँटने के लिए कहा ताकि सब अपना भोजन तैयार करें। दो हफ्ते के दौर में मालूम पड़ा कि इस तरह काम नहीं चलेगा, प्रतिव्यक्ति शुल्क नाकाफी है, तथा न जाने छात्रों का इसमें कितना समय लगता है। आखिर में माफ़ी माँगी, पर रसोई में भी कुछ बदलव आया। सबसे ज़्यादा उलाखना बावर्ची के खिलाफ़ हुआ। वह प्रार्थना करने पर भी नहीं समझा कि विदेशियों से उतना मसालेदर खाना खाया नहीं जाता, जो वह बनाता जाता रहता था। उसे बर्खास्त कर दिया गया।

तब से हर महीने एक मैस कॉमिटी बन जाती है (या भोजन समिति, हालांकि यह कोई नहीं कहता है), जिसमें पाँच-छः सदस्य, लड़के-लड़कियाँ एकसाथ शामिल हैं। लड़कियों की भूमिका खास तौर से यह है कि वक्‍त ब वक्‍त रसोई­वालों की छानबीन करें, क्योंकि रसोई उनके छात्रावास में है, जहाँ कोई साधारण पुरुष घुस नहीं सकता। काम का बड़ा हिस्सा लड़कों का है। कार्यमहीने की शुरुआत पर खराब न जानेवाली चीज़ों को एक रेले में खरीदना, हफ्ते में एक बार सब्ज़ी लाना और वैसे जो छोटी-मोटी सामग्री कम हो जाए, उसे फिर से भरना। और निश्चित रूप से बजट यथासंभव बचाना, हिसाब-किताब करना। इसके अलावा मीनू को सुधारना भी हमारे ऊपर है। वास्तव में हमारे पहले महीनों से परिवर्तन नहीं था, हो सकता है, इसतिए कि बाकि लोगों की इस काम में रुचि कम थी। निस्संदेह, जो कुछ किया जा सकता है, काफी सीमित है। जो हमने किया, यह है, कि अलग-अलग खानों को एक-दूसरे से ठीक से मिलाया, और जो खाने किसी को भी पसन्द नहीं थे, उन्हें रद्द किया (सबसे पहले चिकनी दम गाजर को)।

खराब न होनेवाली सामग्री खरीदना बेहद अच्छा लगा। चूँकि इस बार लगभग उद्योगी मात्रा में खरीदना था, यह अनहोना है कि सब नुक्‍कड़ पर बनिए से ले लें। दूसरी बात कि क्या कितने में लेते हैं, कुंटलों में इससे बहुत फ़र्क पड़ता है, हर रूपया मानना है। उदाहरण के लिए जहां खरीदारी की, मालिक ने शुरुआत में कहा था कि चावल जो तीस का होता है, हमें अट्ठाईस में देगा, पर रसीद बनाने पर उसने तीस लिखा और यह हमारी नज़रों से बच गया, जिसका अंजाम पाँच सौ का घाटा है। इस महीने में हमारे अधिकार में 99,000 रूपये थे। मैं कॉमिटी का सचिव हूँ, पैसों की देखभाल मुझे करनी है, तो क्या कहूँ, सत्तर लोगों के मैस के पूरे पैसे अपने हाथों में लेना काफी ज़िम्मेदारी है। सोच-समझकर खरीदारी करने के परे पाँच दिन से ज्यादा अवकाश पर होनेवाली वापसी और रसोईवालों को उनकी तनख्वाह भी देनी है। तीनों कुल मिलाकर 11,000 रूपये है।

पर खराब न जानेवाली चीज़ों की बता रहा हूँ। पिछले महीने इद्रिस और विवेक ने इन्हें लेने के लिए बेठीक जगह चुनी, और 42,000 खर्च किया, यानी बजट का करीब आधा हिस्सा। जब समझ में आया कि क्या हुआ, एक ओर जितनी हो सके, बचत करना चाहते थे (फल, अंडा, पनीर कट गए), दूसरी पुछताछ करने लगे, कि आगे ऐसा न हो। इद्रिस से एक कॉण्टक्ट कॉर्ड मिला, जिसपर किसी थोक बाज़ार का पता था। वैसे पर्ची एक बनिए ने दी थी, और इद्रिस यह सोचता था कि उसका है। हम लोग कॉर्ड का अनुसरण करके सीधे ठीक स्थान पहुचे। यह प्रांगण शहर के केंद्र में है, भारतीय परंपरा के मुताबिक आगरा के सब मसाले व आनाज के थोक व्यापारी यहाँ बसते हैं। हमारी दूकान रूप के अहाते के बीचों बीच वुजूद थी। दूकान के आगेवाले हिस्से में, छाया के नीचे तेज़ धूप से बचके सब चारों बैठ लिए, धनंजय, दुलशानी, इमेशा और मैं। वे तीनों श्री लंका से हैं। धनंजय और मैं छात्रावास से निकलनेवाले थे जब लड़कियाँ भी जुड़ गईं, हालंकि दुलशानी कॉमिटी में नहीं है। मालिक से बताया, कि क्या चाहिए, और वह अच्छा मुनाफे की आशा में खुद को एकदम हमारे मुद्दे को समर्पित किया। दोपहर का समय था, लड़कियों को भूख लगी, तो उसने फटाफट चाय व बिस्कुट मंगवाए।

इसके बाद मोल-मुलाई शुरू हुई। यह खेलते थे कि हरेक रकम के ब्यौरे पूछ लिए, किस-किस दर्जे का सामान है, दाम क्या-क्या है। सब जानकारी विवेक की टिप्पणियों से मिलाई, जो पहले से बेठीक साबित हुईं। देखा जाए क्या-क्या चाहिए, अगर कोई भारत में पूरे छात्रावास को खिलाना चाहे। मुख्य पद: ढाई कुंटल आटा, आधा कुंटल चीनी, 30 कि॰ नमक, 250 कि॰ चावल, 30 कि॰ राजमा, 40 कि॰ चना, 10-10 कि॰ मटर, अरहर की दाल, मूँग की दाल, उड़द की दाल, चने की दाल, लाल मसूर जबकि हमारे यहाँ एक ही दाल है, बस। इसके अलावा कई किलो हल्दी, लाल मिर्च, अमचूर, दाल मसाला, चना मसाला, हींग, काजू, किशमिश, चिरौंजी, बादाम, इलाइची, जीरा, काली मिर्च, लोंग, मैदा, बेसन, सूजी, दलिया, राई, सौद की लाल मिर्च, इम्ली, डोसे वाला चावल, टमाटर सोस, रिफाइंड तेल और... देशी घी। (शक्‍कर और आटे का बाकी भाग - रसोईवाले और बनिया कुंटल अलग समझते थे - एक और दौरे में ले लिए।) किससे कितना व कैसा चाहिए यकीन करने के बाद चाचा ने सहायक को माल तौलने के लिए बोला, जबकि हमने रसीद निकाली - मददगार चाचा ने हमारी हिसाब-किताब की वजह से पूरी सूची फिर से बताई। इस सब के दौरान मुझमें पूर्वी व्यापार और बाज़ारों का असली माहौल फैला। पैसे दिए, उसने रिक्शा बुलाया, किराया सही कर दिया और हम कट्टों के ऊपर चढ़कर चले गए।

मंडी जाना इससे थकाऊ है, पैसे देना और आराम से चाय पीना काफी नहीं होता। कुल-मिलाकर पाँच बार जाना है, पर जगह ताड़ने के लिए में पहले विवेक और इद्रिस के साथ भी गया। मंडी का मतलब राजमार्ग के पास मथुरा की तरफ़ खंदारी से तकरीबन दस किलोमीटर दूर पड़ी थोक सब्ज़ीमंडी है। साढ़े छः बजे निकलते हैं और छात्रावास साढ़े नौ के आस-पास वापिस आते हैं। यह पूंजीवादी व्यवस्था के ठीकठीक बुनियादी रूप का स्थल है। जोखिम के कारक कुछ ऐसे हैं: 1) हर कोई धोखा देने की कोशिश में है, 2) रसोईवाला जो सामान ढोने में मदद करने संग होता है, हमेशा किसी खुंजड़िए को यकीन करता है, कि दाम बढ़ाए और मुनाफा बाँटते हैं, 3) इन दोनों को छोड़कर भी कभी भी कोई रकम की कीमत एक हफ्ते में तिगुनी हो जा सकती है। ये सब्ज़ी खरीदते हैं: पत्तागोभी, शिम्ला मिर्च, अदरक, लौकी, खीरा, प्याज़, आलू, फूलगोभी, चुकन्दर, बैंगन, कासीफल, गाजर, मूली, मेथी, लहसुन, खट्टा केला; कभी भिंडी, लोबिया या अरबी भी, पर ये बहुत महँगे होते हैं। कट्टे खुद ले जाते हैं। पहली रकम एक निश्चित जगह से लिया करते हैं ताकि ढेर सारी बोरियों को वहाँ ठहरा सकें, जब तक सब हो जाता है। अब हमारा परिचित टैम्पूवाला भी है, जो दो-चार मिनट व सही दाम में गाड़ी दिला सकता है। पहली बार जब गए, लादने का काम कुली से कराया, फिर धनंजय और में दोनों बोले कि बाँहें तो अपनी भी हैं, खुद करेंगे। एक हफ्ते में 3800 रूपये लगते हैं। खास मज़ेदार है, लोगों की कैसी नज़रें पड़ती हैं - विशेषकर मुझपर - जब सामान के ऊपर बैठके संस्थान लौटते हैं। वैसे मंडी में लोग मुझसे पर्यटक की भाँति बात नहीं करते, कोई हैलो सर नहीं कहता, हमेशा भाई साहब हूँ। और भी अजीब है कि खुंजड़िए हिन्दी में गिनते हैं।

कैसी है थोक मंडी? मुख्यतः प्रातःकालीन। यानी में इस स्थिति में अनुभव करता हूँ; आधी भरी हुई, आधी उनींदी, हालांकि इसका अर्थ यह नहीं, कि चिल्लाहट से भरपूर न हो। प्रवेश के बाद ट्रक की एक बड़ी तुला है। प्रमुख सड़क सीधे आगे चलती है, इससे बायीं ओर और थोड़ा आगे दायीं ओर भी एक-एक शाखा जुड़ी है। आगेवाली बिलकुल थोक आँगन को रास्ता है, वहाँ खेप का लेन-देना होता है। पहली बार गया, तो बारिश की वजह से जमीन दलदली थी - वैसे यब से ऐसा नहीं हुआ - और चप्पलों के नीचे घोड़ों की लीद से ज़्यादा मज़ा नहीं आया। खुंजड़िए अपना माल ज़मीन पर बैठते बोरी, टोकरी, झांपे से या यूँ ही पाल से बेचते हैं - किसी न किसी का नज़दीक सामान रखने का कोठा भी है। माल ताड़ते समय ध्यान रखना पड़ता है कि न कोई इक्‍का झटके, न हमारे सिर से कोई कुली के सिर पर सँभाला हुआ कट्टा टकराए, या कि अचानक एक चायवाला बच्‍चा गरमागरम, अदरक की खुशबू फैलाता पेय हमपर न उड़ेले।

वैसे पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर, कभी नाश्ते के लिए ब्रेड, मुरब्बा और केला चाहिए, या फिर दोपहर के लिए संतरा, कभी अंडा या पनीर। कैचप अलग बात है। रसोईवालों ने पच्‍चीस बोटल मँगवाए, पर हमने सोचा कि पंद्रह से ज्यादा नहीं खाएँगे, लड़के लगभग बिलकुल नहीं खाते। हम नहीं चाहते कि नौ दो ग्यारह होकर रसोईवालों या तस्मीनाजी, लड़कियों की वार्डन के घर ले जाएँ... फिर भी, हमें और लेना पड़ा, क्योंकि कहते हैं, लड़कियाँ खा जाती हैं तो क्या करें? अब पच्‍चीस से भी अधिक हो गया। कुछ पहले पता चला कि लड़कियों के छात्रावास में डोसा ताज़ा है, जबकि हमें लपेट कर टिफिन बॉक्स में खोंसकर गीला-फीका, बिना भराई के डोसा देते है। अभी तक हमने सोचा था कि ये सिर्फ ऐसा बना सकते हैं।

हालांकि यहाँ के हिसाब से जल्दी से उठना अच्छा नहीं लगा, मैसवाला काम बाकी हर नज़रिए से अत्यंत लाभदायक था। धनंजय से दोस्ती बन गई। वह थोड़ा घुन्ना है, लेकिन अब बातें करने का मौका मिला और मालूम पड़ा कि कितना अच्छा लड़का है। पहले विवेक ने जताया कि काश तुम मेरे साथ काम कर सके होते, पर हम दोनों के बीच तालमेल पूरा है, तो में खुश हूँ कि ऐसा हुआ। अब हिन्दी में गिनना काफी आ गया और सभी सामग्रियों के नाम जानता हूँ। दायित्व या बंदोबस्त करने की क्षमता देखें, तो भी सही। आम का आम, गुठलियों का दाम!

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