(गुरु जी के घर मनाया भारत का सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार)
साश ओर्सोल्या--
देहरादून उत्तर भारत के उत्तराँचल प्रदेश का मुख्य नगर है, यहाँ रहते हैं श्री सतपाल जी महाराज, हिन्दू धर्म के एक गुरु, जो आम तौर पर महाराज जी कहलाते हैं। ५ साल पहले मैं और मेरी सहेली उनके घर में बुलायी गयी थीं दीपावली के अवसर पर।
हम हरिद्वार से शाम को निकले थे, जो देहरादून से ज्यादा दूर नहीं है, हम वहाँ गुरूजी के एक आश्रम में रहती थीं। आश्रम के सबसे सम्मानित महात्मा जी हमारे साथ आ रहे थे। पहले हमको इसकी ज्यादा जानकारी नहीं मिली थी कि देहरादून में दरअसल क्या होगा, हालाँकि हमने पता लगाने की कोशिश की कि वहाँ हमको क्या मिलेगा। जवाब आम तौर पर एक जैसा ही मिला: एक ही बात महत्वपूर्ण होती है, कि हम 'वायब्रेशन' को महसूस करें, जो उपासक लोगों, महात्मा लोगों और ज़रूर गुरुजी के परिवार की उपस्थिति से निकलता है और आत्मिक उन्नति पर बड़ा अच्छा प्रभाव करता है।
महात्मा फकीरानंद हमारे निजी शिक्षक थे जबसे हम आश्रम पहुँची थीं, और रोज़ सुबह शाम अपने कमरे में केवल हमको सत्संग सुनाया करते थे अंग्रेजी में। यहाँ ऐसे मानते हैं कि महात्मा लोग अपने जीवन गुरु के लिए त्याग कर देते हैं, इस तरह उनकी आत्माएँ गुरु की आत्मा से जुड़ने लगती हैं। यों जो शिक्षा वे देते है वह दरअसल सीधा गुरु से आती है, महात्मा लोग सिर्फ मध्यस्थ होते हैं। शिक्षण का मूल्य यह है कि शिष्य को गुरु के द्वारा दिए ज्ञान की सच्चाई दिखाता है शिष्य के सारे प्रश्नों के जवाब देकर और शिष्य की सारी शंकाओं को हटाकर, जो जीवन के उद्देश्य और अर्थ पर उठ सकती हैं। और प्रवर्तन यानी ज्ञान देने के बाद प्रवर्तक की विश्वास को सहारा देता है। इस तरह महात्मा जी ने हमारे प्रश्नों के जो भी जवाब दिया वे सब उसके बारे में थे कि जीवन में किस किस चीज़ को महत्त्व देना चाहिए, जो महत्वपूर्ण नहीं हो या बुरा हो उसका परवाह करना नहीं चाहिए। देहरादून में मनाया त्यौहार उनके लिए बड़ा ख़ास मौका इसीलिए होगा कि वहाँ अपने गुरु से, जिससे उनका ज्ञान झड़ आता है सबसे सीधा संसर्ग स्थापित कर सकते हैं उनके शब्दों से स्पष्ट हुआ कि यह एकदम महत्वहीन है कि वहाँ हमारे अलावा और कितने लोग मौजूद होंगे या त्यौहार किस तरह मनाया जाएगा। वहाँ जाके वैसे भी पता चलेगा।
हमारी गाड़ी ७ बजे के आसपास देहरादून पहुँची, और हमारे साथियों ने फाटक पार करते समय 'सत्गुरुदेव महाराज जी की जय' चिल्लाया। बाग में कई गाडियाँ रुकी थीं और कई उपासक और महात्मा लोग छोटे समूहों में इकट्ठे हुए बात कर रहे थे। यह देखकर हमें राहत मिली कि हमको निजी आमंत्रण नहीं मिला पर हमारे साथ कई और भारतीय लोगों को भी यह सम्मान दिया गया था कि वे भी गुरु जी के साथ ही दीपावली मना सकते हैं। क्योंकि वैसे हमको इसकी ज्यादा जानकारी नहीं थी कि एक गुरु के साथ, जिसको उपासक लोग भगवान मानते है कैसा व्यवहार करना चाहिए।
वहाँ पहुँचने के बाद महात्मा जी ने हमको पूरी जगह दिखायी। ३ बड़ी इमारतें हैं: एक है गुरूजी के परिवार की, बाकि दो मेहमानों के लिए। हमको भी एक में एक कमरा मिला, जहाँ अपना सामान रख सकती थीं, हाथ-मुँह धो सकती थीं। दरवाजे और विशेष रूप से गुरु का मकान फूलों की मालाओं से खूब सजाया था। प्रवेश वाले पक्के मैदान के पास एक घासदार बगीचा है, उसके पीछे झाड़ों से घेरा एक स्वीमिंग पूल, उसके सिरे पर गणेश की एक विशाल मूर्ति खड़ी है। स्वीमिंग पूल के पीछे पथरीला आँगन है गुरु जी के मकान और दूसरे मकान के बीच। यह शाम का कार्यक्रम स्थल था। घूमने के बाद रसोई में कॉफी और बहुत सारी मिठाई भी मिली फिर महात्मा जी ने हमको हमारे कमरे में छोड़ा, थोड़ा आराम करने के लिए। थोड़ी देर बाद अँधेरा छाने लगा फिर वे लौटे हमको बाहर ले जाने, ताकि जब तक दिये जलाने लगेंगे तब तक भी हमको लोगों की संगति और वायब्रेशन महसूस हो जाए। पता चला कि ज़्यादातर उपासक एक नज़दीकी आश्रम से आये हैं दिवाली के अवसर पर गुरूजी और उनके परिवार का दर्शन करने के लिए। मेहमानों में कई महात्मा लोग भी थे जिनको सफ़ेद या भूरे कपड़े पहने आश्रमवासियों में उनके केसरी रंग के कपड़ों देखते ही पहचाना जा सकता है। इनमें से सब आश्रमों से नहीं आये, ऐसे महात्मा लोग भी होते हैं, जो विदेश में ज्ञान का प्रचलन करते हैं और वहाँ के उपासकों को सत्संग सुनाते हैं। ये हमारे महात्मा जी से भी मिलने आते रहते थे और उनका पैर छूकर प्रणाम किया करते थे। उपासक लोग भी ऐसा करते थे पर वे इसके साथ कुछ पैसे भी दान करते थे इनके लिए।
केसरी रंग के कपड़े पहने साधू लोग पूरे भारत में बहुत सम्मानित होते हैं। उनके कपड़े सदा जीवन के प्रतीक हैं, उसका प्रतीक कि ये लोग दान लेते ही जीवन गुज़ारते हैं और इसके बदले में सुननेवालों को ज्ञान देते हैं। ।।।।
कुछ देर बाद सैकडों मोमबत्तियाँ और दिये जलाये जाने लगे, जो हर मकान के आलिंदों और छतों के चारों ओर, बगीचे और आँगन के किनारों में, चारदीवारी पर और स्वीमिंग पूल की चारों ओर पंक्ति में लगे हुए थे। महात्मा जी ने हमको दोबारा पूरी जगह घुमाया और ज्यादा से ज़्यादा तस्वीर खींचकर इस अनुपम दृश्य को अविरत बनाने के लिए प्रेरणा कर रहे थे। बत्तियों की पंक्तियाँ और सुगन्धित तेल वाले दिये सचमुच मोहनी माहौल फैला रहे थे। हमको भी दो मोमबत्तियाँ मिलीं जो हमको अपने हाथ से किसी पंक्ति में लगानी थीं।
दीपावली के बारे में कई लोगों ने बताया था हमको भारत में। यह देश के सबसे महत्त्वपूर्ण त्योहारों में से एक है, इसको प्रकाश का त्योहार भी कहते हैं। प्रकाश हिन्दू संस्कृति में आम तौर पर ज्ञान का प्रतीक है, जैसे इस त्यौहार में भी। जो प्रकाश अँधेरे को भगा देता है वह अज्ञान को भगा देने वाले ज्ञान का प्रतीक है। इस त्यौहार के अवसर पर हर मकान फूलों की मालाओं से सजाया जाता है, अँधेरा छाने पर सैकड़ों की मोमबत्तियाँ, दिये, रंग-बिरंगे कागज़ के चिराग, पटाखे जलाये जाते हैं। बत्तियों को जलाना ज्ञान के प्रकाश के अलावा बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक भी होता है। इस त्यौहार का आधार रामायण की एक कहानी है, जब राम राक्षसों के राजा रावण को जीतकर अपने राज्य में लौटे थे तो प्रजा ने मकानों और सड़कों को प्रकाश में बोर दिया था, इस तरह राजा की प्रशंसा की थी जिन्होंने दुष्टता को पराजित करके सच्चाई का शासन दुनिया में दोबारा स्थापित कर दिया था।
इस समय लोग एक दुसरे को मिठाई खिलाते हैं, आम तौर पर खील और खाँड की मूर्ति देते हैं। घर के लिए कुछ नया सामान लेते हैं और नए कपड़े पहनते हैं। चूँकि दिवाली हिन्दू साल की शुरुआत भी है तो घरों में लक्ष्मी और गणेश जी की पूजा करते हैं, इनसे घर और परिवार का शुभ लाभ माँगते हैं नए साल के लिए। अक्सर मालिक भी सेवकों को नए कपड़े देते हैं तौहफे में।
ढेर सारी तस्वीरें खींचकर हम फिर से आँगन तक पहुँचे जहाँ से जूते निकालकर और हाथ धोकर ही आगे जा सकती थीं गुरूजी और उनके परिवार से मिलने। आँगन में शाम की कार्यक्रम की तैयारियां चल रही थीं: एक किनारे पर दो कालीनें बिछाई थीं, उनपर कुर्सियों की पंक्ति लग रही थी। उनके पीछे बड़े डिब्बों में फल, खील, मिठाइयाँ रखी थीं। महात्मा जी ने समझाया कि इन कुर्सियों पर गुरूजी के परिवारजन बैठे होंगे और अतिथि पंक्ति लगाकर सब के सामने प्रणाम करने में झुकेंगे और पैर छूएँगे। हम जो विशेष अतिथि हैं उनमें से किसी को माला भी लगाएँगी।
फिर किसी ने हमको रसोई में बुलाया गुरूजी का प्रसाद लेने के लिए और केक के दो-दो बड़े टुकड़े हमारे सामने रखे। प्रसाद भगवान के लिए भेंट के रूप में चढ़ाया गया खाना होता है, जिसको इस तरह ईश्वर की - या हमारे मामले में गुरु की - देन मिलती है। आश्रम में हर रविवार की आरती के बाद उपासकों को प्रसाद बाँटा जाता है गुरूजी की तस्वीर का प्रणाम करने के बाद। और दर्शन के समय उपासक लोग ही गुरुजी और उनके परिवार को प्रसाद देते हैं।
प्रसाद खाते-खाते गुरूजी के परिवार का निकलना बहक गया। जब तक हम रसोई से निकलीं तो आँगन में बड़ी भीड़ इकट्ठी हुई और जब तक हम इसको पार करने में सफल हुईं तो गुरूजी और उनके परिवार के सदस्यों के गले में मालाएँ पहनाई जाने लगी हैं, इसलिए हमारा ऐसे करने का अवसर चूक गया, पर कम से कम सारी घटनाओं को ध्यान से देख सकती थीं।
सब लोग वास्तव में लम्बी पंक्ति में जमे हुए इंतज़ार कर रहे थे कि आगे बढ़कर परिवार के हर सदस्यों के पैर चूम सकें या अपने माथे से छू सकें, जो इस दौरान अपने पास रखे डिब्बे से कुछ न कुछ उठाकर लापरवाही से सामने आनेवाले को दे रहे थे।
गुरु के पैर छूने की रीति इस विचार पर आधारित है कि गुरु को लोहकांत (चुंबक) माना जाता है, ज्ञान का सोता, जो ज्ञान के प्यासे उपासकों को अपने पास खींचता है, जिस तरह लोहकांत कीलों को। इस तरह प्रणाम का पूरा रूप वह होता है जब उपासक गुरु के सामने पेट के बल लेटता है और अपने माथे से गुरु के पैर छूता है जो विपरीत ध्रुवों को जोड़ने का प्रतीक है। महात्मा जी प्रणाम इस तरह ही करते थे पर आम तौर पर यह थोड़ा सरल हो जाता है, लोग घुटनों के बल ही पैर छूते है।
गुरूजी के परिवारजन आम तौर पर अपने सामने झुके लोगों पर नज़र भी नहीं डालते थे, ज़्यादातर एक दूसरे से बातें करते रहते थे। इसके दौरान महात्मा जी और तस्वीरें खींचने के लिए प्रेरणा दे रहे थे, यों हम सारी घटनाएँ बाहरी दृष्टि से देख सकती थीं जब तक पंक्ति खरीब समाप्त नहीं हुई। तब तो उन्होंने हमको भी जल्दी पंक्ति में लगाया ताकि हमारा प्रणाम करने का मौका कहीं छूट न जाए। अब हम अचानक "पर्यटक" से "उपासक" में बदल गयीं, और थोड़ी घबराहट से तो पर हमने भी प्रणाम की सिलसिला शुरू की पहलेवालों का नक़ल करके। हमारे "अंग्रेजी अतिथि" के पद के बावजूद प्रणाम हमको भी बाकी सब की तरह ही करना पड़ा गुरुजी के पूरे परिवार के सामने। पर बड़ा फरक यह था, की हमको इनसे शायद सबसे बड़ा सम्मान मिला था: उन्होंने हमसे मुस्कराके सलाम करने के अलावा बातें भी कीं। गुरुजी ने बताया, कि उनकी पत्नी बुदापैश्त भी जा चुकी है, और उनके बेटे ने हमारा स्वागत किया भारत में। यानी उनको ठीक ठीक मालूम था कि हम कौन हैं और कहाँ से आई हैं।
उपासकों की पंक्ति ख़तम होते ही परिवार खड़ा हो गया ताकि जो चाहता था उनकी तस्वीर खींच सके। फिर उनके बड़े बेटे ने आश्रमवासियों में नए कपड़े बाँटे, जो अब भी प्रणाम करके धन्यवाद दे रहे थे।
कपड़े बाँटना - अगर हम दीपावली की रीति पर ध्यान रखते हैं - तो गुरु और उपासकों की रिश्ता स्पष्ट दिखाता है। सेवा करने का दान देने की तरह बड़ा महत्त्व होता है: यह उपासक शिष्य का एक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है, जो उसकी आत्मिक उन्नति को आगे बढ़ाने में बहुत सहायक होता है। आश्रमवासियों का जीवन खुद ही सेवा है, पर बाहर रहनेवाले गृहस्थ उपासक भी समय समय पर किसी न किसी आश्रम में गुरु की सेवा किया करते हैं। कपड़े बाँटने के अलावा परिवार के हाथ से मिले प्रसाद, पूरा समारोह, और एक ही तरफ से हुई मेहमानदारी भी ज़्यादातर सेव्य-सेवक, गुरु-शिष्य के रिश्ते की प्रतीक है, बराबर पारिवारिक या दोस्ती के रिश्ते के बावजूद, जिनको दिवाली पर मीठाई या तौहफे पलटने से दृढ़ किया जाता है। इस नाबराबरी पर और ज़ोर देता है कि जो भी दर्शन हमने किए थे उनमें से यह एक ही था जिसके दौरान उपासक लोगों ने गुरु और उनके परिवार को कुछ नहीं दिया।
जब कपड़े ख़तम हुए तो भीड़ आँगन की एक ओर फ़ैल गई और गुरुजी का परिवार भी इसमें शामिल हुआ। शहर से कुछ देर से पटाखों के धमाकों की आवाज़ आ रही थी, अब यहाँ भी त्यौहार के इस खंड की तैयारियाँ शुरू हुईं। जब गुरुजी बम्बों की एक अनंत हार लगा रहे थे आँगन के चारों ओर तो उनके भाई से हमको कुछ रुई मिली कान में लगाने के लिए जिसने खुद भी बुद्धिमानता से अपनी कानों में रुई लगा रखी थी। अब परिवार के सदस्य भी बाकी और लोगों से मिलकर उनके जैसे ही व्यवहार कर रहे थे, एक ही चीज़ उनको अलग करती थी, कि उनहोंने ही जूते पहन रखे थे।
पटाखों के खेल के प्रारंभ में अभी लगा हुआ हार आवाज़ की अविश्वसनीय राशि से विस्फोट हो रहा था। अंत में सब ने ज़ोर चिल्लाकर गुरु का गुणगान सुनाया फिर एक के बाद एक बम्ब, चक्रियाँ, रॉकेटस, अनार,फूलझरियाँ आदि तरह तरह के पटाखे लगातार प्रकट होने लगे। स्पष्ट रूप से इससे हमारे अलावा कोई भी चिंतित नहीं था कि ये सब एक छोटे से, दीवारों से घेरे आँगन में जमी भीड़ के बीचोंबीच जलाये जा रहे थे। सबको खूब मज़ा आया और कुछ लोगों को काफी हंसी आई जब भी हम किसी कोने में छिप गयीं किसी घूम गए बोम्ब या चक्री से भागकर। परिवार के सदस्य बार बार पटाखों के नए डिब्बे लेकर प्रकट हुए और तब सब लोग उनके सामने धक्का-मुक्के लगाते रहे ताकि कुछ और पटाखे मिल जाये। कभी कभी हमारे हाथ में भी कुछ जलती फूलझड़ी पकड़ाई गयी थी। डर जितना भी हो, मनोरंजन से दूर रहना संभव नहीं। लगभग एक घंटे के धड़ाके के बाद अंतिम बम्बों का हार भी समाप्त हुआ फिर भीड़ तितर बितर हो गई।
पटाखों के खेल के बाद रसोई में बढ़िया दावत भी मिली, फिर महात्मा जी हमको परिवार के एक सदस्य के पास ले गये, जो जानेवाली ही थी, ताकि उनसे विदा लें। हमने उनका प्रणाम किया फिर उन्होंने पूछ लिया कि हमको समारोह कैसा लगा? महात्मा जी बहुत ज़्यादा उत्सुक हो गए कि हमको उनसे मिला पाए और समझाया कि हमको कितना बड़ा आदर मिला था जब उन्होंने हमसे बात भी की। हमने अच्छा अनुमान लगाया था कि हमसे ख़ास बरताव किया गया था तब दर्शन के दौरान हमको बोला गया। फिर कुछ देर बाद हम हरिद्वार लौटने के लिए निकले।
आश्रम रात को साढ़े १२ बजे के आस पास पहुँचे। यहाँ कुछ लोग जागे हुए हमारा इंतज़ार कर रहे थे। जल्दी कुछ और मिठाई खिलाई, कुछ चक्रियाँ पकडायीं पर जलाने का काम उनको ही लेना था क्योंकि हमारा मन नहीं लग रहा था। उनको भी मज़ा आया हमारा डर देखकर। यह भी दिखाया, कि इस दिन दिये का काजल आँखों में कैसे लगाते हैं और कुछ बम्ब और फुलझड़ी भी जला दिये हमारे लिए, हमको सो जाने देने से पहले, जैसे वे भी हमारी पहली दिवाली का हिस्सा लेना चाहते थे।
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