शनिवार, 1 मई 2010

पुराना परिचित

पैतेर शागी--

मुझे एक लड़का याद आया। कई दिनों से मुलाक़ात नहीं हई, आखिरी मिलन से कम से कम सात साल बीत गए होंगे। लेकिन अब आकस्मात - किस को पता है क्यों - मानो कोई किरण शिथिल फिर भी ओजस्वी खौलते रहते बादल बींधे, मेरे स्मरण में भी एक किरण आ गया। कहीं ऊपर से मद्दिम दृश्य के कालापन, कृष्णता में किसी कारण ऐसे पहुँच आया कि उसने देखने दिया, पहले मेरे इंद्रिय कितने उत्तेजित होते थे जब प्रकृति के नए सनातन रहस्यों की पर्दाफ़ाश कर सका।

हाँ, इस वजह से कुछ विषय थे जो दोनों को रुचिकर लगे। रसायनशास्त्र की याद करके उसका तद्व्यक्तित्व तुरंत मेरी निगाहों में आया - कहा जा सकता कि एक ऐसे पल से जो अनंतकाल का हिस्सा बन चुका था। हमारे अंतिम मिलन पर एक दूसरे के काफ़ी निकट थे। उसने हलके कपड़े का स्वेटर पहन लिया था, या शायद वही नहीं। फिर इतना मालुम है कि अधिकतर उसे अपनी बाँहों से ठंड लगी करती। वैसे उस समय कमरे में स्थिर गरमी छा रही थी। फ़िलहाल मकन में तो दूसरे भी रहते थे, पर दिखाई नहीं देते। यह मन लगाते हुए सामनेवाली इमारत की दीवार घूर रहा। दिनभर असमान निरभ पड़ा, किंतु साँझ के घंटे में खिड़की के चौखटे की घेरी विस्तृत पर कभी नहीं और विस्तृत होती तस्वीर को फ़ौलादी बादल भर देने लगे। आरंभिक रात फैल जाने से ठीक पहले बची हई रोशनी इमारतों के तले सिकुड़े सिलेटी सड़कों, काले खिड़कियों और इस्पाती आकाश के बीच अनेक बार प्रतिबिंबित हो रही थी। कुछ देर तक सड़क के चिराग भी बुझे पड़े। हो सकता है कि यह रोशनी तो शहर की थी, एक शहर की जहाँ ठंडी रातों में भी गिलास झनझनाते हैं। जहाँ है ऐसी जगह, जिसकी शोर नहीं, चमक ही पहुँचती है शांत पाड़े में खड़ी इमारतों के बीच उस नगण्य स्कूल के आँगन की पत्तहीन ठिठुराहट, जिसे लड़का एकटक देख रहा था।

उसने अपनी नज़र दिनांत के इस सख़्त, फिर भी ताज़ा दृश्य में गाढ़ दी, इसके बाद आरामकुर्सी के पास फ़र्श पर स्विच ढूँढ़ने लगा। टटोलते हुए गहरी साँस ली और लैम्प जालाया, जबकि दुनिया बाहर. विजन सड़क के ठंडे थपेड़ों में रह गई। रसायनशास्त्र की पाठपुस्तक उठाकर उसमें खो गया। लड़के के लिए यह किताब नई थी। अपनी भीग गई, इसलिए उसे छोड़कर इस वक़्त अपने हाथों में एक परित्यक्त और जीर्ण प्रति पकड़ रहा था। अरुचि महसूस करता, कम विश्वास रखता कि इस नक़ल का प्रयोग ठीक अपने लिए निर्धारित की भाँति सफलता से कर पाएगा।

समने खाने पर ऊँघती हुई छोटी घड़ी ने सात बजे और इसने शरीर के चारों ओर कंबल को कस दिया। इस कंबल से प्यार करता था, चाहे कुछ समय क्यों न लगा हो जबतक आदत कर ली। बड़ा कोमल नबीं था, ऊन के कँटीले धागे नंगी त्वचा को हलका-सा सता रहे थे, फिर भी रोयेंदार होते चले जाने के साथ-साथ वह कंबल से प्यार करने लगा। ठंडे रातों में लैंप के ज्वलनशील मंदल में मानो किसी काल्पनिक चूल्हे का तापमान बनाये रखते हो वह कंबल।

यह लड़का कितने प्रकार के सपनों में जी रहा था। रसायनी था, मल्लाह था, पुरात्त्वज्ञ था। बचपन की शुद्धता ने उसका परित्याग नहीं किया है, केवल उसने ऐसा सेचा। दूर भटक रहा और उसे निसंदेह मालूम था कि कहीं भी जो भी करे वह सार्थक काम रहेगा। कुछ दायित्व का गुलाम नहीं था: उसे क्या पता था, किससे डरना चाहिए। बिना कलंक के रहा, पर कम जानता था भविश्य क्या लौकिक आनंद जुटा सकता है। आनंद जो लंबे रातों का पारिश्रमिक है, जब अंग-अंग निढल हुए रजई का हाशिया तह करके आरामदेह पलंग पर लेटता है, तकिये का ताज़ा, खुशबू फैलाते, कड़कड़ गिलाफ़ को ठीक करते हुए आत्मा आनेवाली निद्रा को देता है जो शून्यता में ले जाती है।

ऊपरी मंज़िल पर हलचल हो उठी, जिससे पता चला कि कुछ देर बाद उसे भी तैयार होना चहिए। एक फ़िल्म देखने जानेवाले थे। बेमन से आरामकुर्सी को छोड़ दिया। कई दिनों से उत्तेजित होने पर भी इस समय मन में बेचैनी छा गया इसलिए कि अमोनिया से भरपूर आस्था से जागना पड़ा। एक और बार यह लड़का बनना चाहता हूँ।

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