शनिवार, 1 मई 2010

सबसे पहला दिन भारत में

साश ओर्सोल्या--

रिक्शे और ऑटोज़, दो-चार गाड़ियों से कदम मिलाकर कूडे से ढँकी कच्ची सड़क पर तेज़-तेज़ दौड़ रहे हैं। बीच में हर दिशा में पैदल जानेवाले घूमते रहते हैं। चारों ओर कभी नहीं देखी गन्दगी और गड़बड़ी फैली है। ऑटोज़ हार्न बजा रहे हैं, लोग चिल्ला रहे हैं और हवा में कुछ खास भारत-गंधभरी है जो हमारी आँखों के सामने आए दृश्य को जैसे संक्षेप में ढाल लें: चाय, सड़क पर बना खाना, गायें, लोग, हुमस गर्मी और कूड़ा।

यही दृश्य सामने आया जब हम सुबह दिल्ली के पहाड़ गंज की एक गली में निकलीं। हमारा प्लेन रात को आया था, यों एअरपोर्ट और होटल के बीच जो सफ़र किया हमने उसमें इंडिया कम ही दिखा था। असली रोमांचक क्षण अगले दिन से ही शुरू हुए जब सुबह कैमरा सजाये मैं और मेरी सहेली अपने कमरे से निकलकर दिल्ली की भीड़ में शामिल हो गयीं। आने से पहले हमें काफी कुछ सुना भी है, भारत के बारे में, फिल्में, तस्वीरें देखी हैं फिर भी ऐसा लगता है कि योरोपियन नज़रों से इसकी कल्पना की जा नहीं सकती कि आकर इधर क्या मिलनेवाला है। नजरिया पूरी तरह बदल जाता है।

हमने भीड़ की लहरों के साथ अपने-आपको दौड़ने दिया, पर ज्यादा दूरी तक पहुँच पाए, इससे पहले ही कोने पर एक शर्ट-सूट पहने, मोबाइल वाले आदमी ने हमें रोक लिया। फिर पूछताछ शुरू हुई: आप कहाँ से आई हैं? कहाँ जा रही हैं? क्या करती हैं? जब उसको पता चला कि हम हरिद्वार जानेवाली हैं तो बोल पड़ा: ये ठीक नहीं होगा! पहले भारत पहचान लो! और मशहूर जगहों के नाम बोलने लगा जो हमें अवश्य देखनी होंगी। फिर अचानक पूछ पड़ा: चाय पीओगी? खैर, क्यों नहीं? उसका पीछा करके एक छोटे रेस्तरां पहुंचे। उसने चाय मंगवाई सबके लिए। बातें करते करते हमने चाय पी ली फिर लौटते समय वह दुबारा मशहूर जगहों के बारे में बात करने लगा। फिर बोला, अगर हमें दिल्ली में कुछ देखना है तो इसके ऑफिस जाएँ, यहीं है बगल में।

दोबारा इसका पीछा करके तंग सीढ़ियों से होकर एक छोटे छोटे कमरे में पहुंचे। यहाँ एक पलंग पर दो और आदमी बेठे थे। हमारे आने पर एक मेज़ के पास बैठ गया और विस्तार से समझाने लगा कि कौन कौनसे सफ़र निर्माण करते हैं भारत की लोकप्रिय जगहों को दिखाने के लिए। फिर दिल्ली की देखने लायक जगहों तक पहुँचा: बस से या टैक्सी से, सस्ते में या आरामदेह, कोई भी तरीका चुन सकते हैं, पर जल्दी ही तय करना है वर्ना टिकेट्स नहीं मिलेंगे। हमको बहुत मेहनत करनी थी कि अंत में बिना टिकट लिए ऑफिस छोड़ पाए।

सीढ़ियों से उतरकर दोबारा गली में निकलीं। डेढ़ घंटा लगा, पता लगाने में कि हमारे नए दोस्त का असली इरादा क्या था और अब फिर से उसी कोने पर खड़ी थीं जहाँ से हमारा दिन शुरू हुआ डेढ़ घंटे पहले

कुछ और घूमने-फिरने तथा और अपूर्व अनुभवों के बाद हम मैन बाज़ार पहुँच गयीं। अब तक जो भी अनुभव हुआ उससे यहाँ की भीड़ और शोर कई गुना ज्यादा लग रहा था। यहाँ भी वह ही जानी-पहचानी गंध तैर रही थी और कोई न कोई लगातार अपना सामान हमको बेच देने की पूरी कोशिश करता रहता था। रिक्शेवाले सस्ते दाम चिल्लाते रहते थे, दूसरे लोग हमें अपनी दूकान में बुलाते रहते थे और दूसरे लोग अपने सामान खुदपर लटका करके उनको हमारे हाथ में पकड़ाने की पूरी कोशिश करते रहते थे। हमने सबसे तेज़ गति लेने का फैसला किया जो भी हम लोगों, गायों और रिक्शों की लहरों के बीच ले सकती थीं, और कुछ भी खरीदने से बचके रहने की पूरी कोशिश कर रही थीं।

थोड़ी देर बाद एक छोटी भिखारी लड़की हमारा साथ देने लगी। उसका चेहरा बहुत प्यारा था और उसके कपड़े ज्यादा बहुत गंदे। एक छोटी थाली आगे बढाके हिंदी में पैसे माँगती रहती थी। हमारे पास कोई भी सिक्का नहीं था, उससे छुटकारा लेने की कोशिश कर रही थीं, पर हम जितना भी तेज़ चल रही थीं वह पीछे एक पल भी नहीं रुकी और यही दोहराने लगी कि न मम्मी, न दैद्दी, रुपये दे दो इतना तो हमको भी समझ में आया, अंत में हम कुछ केले खरीदने रुक गईं और लड़की केले लेने के बाद आखिर चली गई। पर जल्दी ही उसके स्थान पर दूसरे लोग आ गए। एक ढोलवाला हमारे पीछे पीछे दौड़ रहा था और अपने ढोल पहले ६०० रुपये में देने का प्रस्ताव कर रहा था फिर दाम ५०० कर दिया। अंत में हमने दो लिए उस आशा में कि इस तरह इससे छुटकारा मिले। बहरहाल इसकी सफलता से प्रेरित होकर मुरलीवाला, चिक काढनेवाला, मालावाला और सब के सब जिसके पास कुछ था बेचने के लिए तुंरत प्रकट होकर हमें घेरने लगे। हम जल्दी ही भागीं और बाज़ार पीछे छोड़ दिया।

फिर हमने सुबहवाले रेस्तरां में पहले दिन की परीक्षा के बाद आराम करने की कोशिश की। यहाँ परिचित और शांत वातावरण में भारतीय पाक-प्रणाली का आनंद लिया और इसके दौरान यह भी पता चला कि ढोल का असली दाम ५० रुपये के आसपास होता है।

दूसरे दिन के लिए हमने हंगेरियन सांस्कृतिक केंद्र जाने की योजना की, जिसका पता १ जनपथ है नई दिल्ली के सेंटर में। पहले हमको चेतावनी मिली कि ट्रेन स्टेशन के पास खड़े प्री-पेड रिक्शे से जाना ज्यादा समझदारी है, क्योंकि सायकल रिक्शे से ढोल वाला नुकसान पक्का मिलनेवाला है। इसलिए हम मेन बाज़ार में स्टेशन की ओर चलने लगीं, और अब अपने सामान बेचनेवालों का पीछा ज्यादा कुशलता से छुडा रही थीं। काफी देर तक सायकल रिक्शों के प्रस्ताव भी इनकार कर पायीं पर एक रिक्शेवाला बहुत लम्बे समय से पीछा कर रहा था और सच्ची कम दाम बता रहा था तो अंत में हमने हार मान ली और पैदल चलना छोड़ दिया।

जैसे हमारा रिक्शेवाला मोड़ काटकर चौड़ी पक्की सड़क पर पहुंचे और सर पीछे मोड़कर हमसे बात करने की कोशिश की तो हमने चारों ओर बहते यातायात की दौड़ को नज़रंदाज़ करने की पूरी कोशिश की। हम पता दिखाकर समझाने की कोशिश कर रही थीं कि कहाँ जाना है, पर ऐसा लग रहा था वह मानने के लिए तैयार नहीं था। उसके स्थान पर टूटी-फूटी अंग्रेजी में किसी जनपथ मार्केट के बारे में समझा रहा था जहाँ तरह-तरह के शिल्पकर्म के सामान बिकते हैं और टूरिस्ट लोगों में बहुत लोकप्रिय है। हम तो वहीँ जाना चाहते होंगे, है न? ठीक है, क्यों नहीं। दोबारा हार मान ली। एक बार वहाँ तक पहुँचेंगे तो एक नंबर ढूँढना कोई मुश्किल काम नहीं होगा।

लगभग आधे घंटे बाद हम बड़ी सड़क छोड़कर दो-चार मोड़ काटने के बाद रुक गए। हमारा रिक्शेवाला किसी दुकान के बारे में समझा रहा था जो हमको अवश्य देखनी चाहिए, क्योंकि उसमें बहुत बढ़िया सामान मिलता है। हम आराम से जा सकती हैं सब कुछ देख सकती हैं, वह इंतज़ार करेगा। लग रहा था हमारे सामने और कोई विकल्प नहीं था, जाना ही पड़ेगा अगर इस रिक्शे से कभी आगे जाना चाहती हैं।

यह दुकान बाज़ार से एकदम अलग दिखती थी। वासी ऊत्सा (बुदापैश्त की एक पर्यटकों की खरीदारी के लिए मशहूर सड़क) जैसी चमक-दमक, मँहगे टूरिस्ट वाले सामान की थी, पर बेचनेवाले यहाँ भी अन्य बाज़ार वालों की तरह आग्रही थे। हमको खाली हाथ जाने देने के लिए तैयार नहीं थे। अंत में कुछ छोटे मोटे सामान लिए तोहफे में देने के लिए करीब उतने पैसे में जितने में हंगरी में भारत से आया सामान मिलता है। थोड़ी मुश्किल से तो पर आखिर दुकान से छुटकारा पाकर रिक्शेवाले के पास लौट गयीं। उसने लिफाफे देखकर पूछा हमने सामान कितने में लिया। फिर दोबारा चल दिया, पर ज्यादा दूरी तक नहीं। दूसरी दूकान तक पहुँच कर दोबारा रुक गया। अब रिक्शेवाला थोड़ा ज्यादा ईमानदारी से बात करने लगा: अब सिर्फ यह दुकान देख लें, उसको एक टी-शर्ट मिलेगी फिर हमको जनपथ १ तक पहुंचा देगा। (मतलब उसको ठीक से समझ में आया कि हमको कहाँ जाना है, फिर भी हम ही उधर जा रही हैं जहाँ वह जाना चाहता है!) यह टी-शर्ट वाली बात पूरी तरह समझ में नहीं आई, पर हमने सोचा शायद दुकान में कुछ सस्ता सी टी-शर्ट मिलेगी जो हम ले सकती हैं इसके बाद, फिर अंत में हम अपनी मंज़िल तक पहुँच पाएँगी। हम अन्दर गईं, पर दोबारा एक शानदार टूरिस्ट दुकान में पहुंचीं, जिसमें आदमियों के कपड़े रखे थे। टी-शर्ट नहीं थी, पर बेचनेवाले ने ९०० रुपये वाली शर्ट्स दिखाईँ। हमने पूछ लिया की इससे सस्ती भी रखते हैं? मुस्कराया। सड़क के अंत में मिलेगी, बाज़ार में। तो यहाँ से सचमुच खाली हाथ निकलीं और रिक्शेवाले को समझाने लगीं कि टी-शर्ट सिर्फ बाज़ार में मिलेगी। थोड़ी और कोशिश के बाद अंत में समझ गयीं कि क्या हो रहा था, जो अब वो छिपा नहीं रहा था, अगर हम दुकान से कुछ लेती हैं अपने लिए, तो दुकानदार से उसको एक टी-शर्ट मिलेगा। जब उसको लगा, कि अंत में बात हमारी समझ में आ गयी, तो रिक्शे को घुमा दिया और हम फिर से टूरिस्ट वाली दुकानों की ओर बढ़े जा रहे थे। पर हताशा में पड़ने से पहले ही मदद आ गई वरदी पहने दो आदमियों के रूप में।

दोनों एक साथ रिक्शेवाले पर चिल्ला उठे और जोर झगड़ा शुरू हुआ हिंदी में। फिर उन्होंने हमसे पूछा कि रिक्शेवाले को कितने पैसे देंगी। साथ साथ रिक्शेवाले ने हमको समझा दिया, कि पुलिसवाले यह जानना चाहते हैं, कि वो हमको कहीं धोखा नहीं दे रहा, क्योंकि कई रिक्शेवाले कई गुना दाम बताते हैं और अनजान टूरिस्टों को इधर-उधर घुमाते हैं। हमारे दिमाग में एक पल के लिए आ गया, कि दुकानवाली घटनाओं को सुना दें, या फिर बता दें, कि हमारा इरादा है इसको ५० रुपये देने का, या फिर सबसे संक्षिप्त - और बेशक सही - जानकारी दें कि उसने ५-५ रुपये मांगे सफ़र शुरू करने से पहले। फिर हमने अंतिम विचार ही बांटने का फैसला किया। इसके बाद पुलिसवाले बुदबुदाकर चल दिए। लग रहा था हमारा रिक्शेवाला ज्यादा जोखिम लेना नहीं चाहता था और अपना सायकल सही दिशा में घुमाया। अब तो जल्दी ही जनपथ की शुरू तक पहुंचे। इसको ५० रुपये देने के बाद आखिरकार हमारा उससे वियोग हो चुका था।

आखिर में हम अपने पैरों पर खड़ी थीं जनपथ के निकास में। शायद। हालाँकि हम अंदाजा तक लगा नहीं पाईं कि जनपथ कौनसा होगा क्योंकि साइनबोर्ड कहीं भी दीखता नहीं और गलियां सारी से सारी दिशाओं में चलती हैं अनुस्थापन में काफी बाधा लगाकर। थोड़ी ही देर खड़ी रहीं झिझकते हुए जब एक युवा लड़का आ गया और हमको टूरिस्ट ऑफिस तक पहुँचने पर जोर डालता रहता था जो १ जनपथ की ओर ही है, जब तक हम उसके पीछा करके ऑफिस नहीं पहुँचीं। उसको कुछ रुपये देना चाहती थीं पर उसने लिए नहीं।

ऑफिस में बैठे आदमी ने तो तुंरत समझ लिया कि हम हंगेरियन केंद्र ढूँढ रही हैं और कॉल करने की भी कोशिश की, पर छुट्टी का दिन था, केंद्र में कोई नहीं था। हमारी किस्मत अच्छी नहीं रही। फिर भी पूछ लिया: और क्या सेवा कर सकता हूँ? यहाँ से कहाँ जा रही हैं? टिकट है आपके पास? कौनसी क्लास? हमने अपने ट्रेन टिकट दिखाए। उसने सिर हिला दिया: यह ठीक नहीं हैं! टूरिस्ट लोगों को यह पता नहीं होता। ये स्लीपर क्लास के टिकेट्स हैं, यहाँ सीट से दोगुना सवारी बैठेंगी। इनको बदलना होगा! बस के टिकेट्स लें, ज्यादा अच्छा रहेगा।

आश्चर्यजनक रूप से हम काफी जल्दी निकल पाईं जेब में अपने पुरानी टिकट रखकर और अब बिना किसी मंजिल के ही घूमने लगीं। एक इन्टरनेट शॉप में घुसनेवाली थीं जब पहलेवाला लड़का फिर से सामने आया। कहा, अगर हम इन्टरनेट का इस्तेमाल करना चाहती हैं तो एक ज्यादा अच्छेवाली शॉप दिखाएगा। स्थिति सचमुच मनोरंजक होने लगी और हमको जिज्ञासु कर दिया। अब समय की फ़िक्र भी नहीं रही यों हमने फिर से अपने को घुमाने दिया।

हम लम्बे लम्बे समय टहलते रहे टेढ़े-मेढ़े रास्तों और गलियों में, मकानों के बीच, झोंपडियों से होकर, और बातें करते रहें। लड़के ने कहा, कि बाद में हमको कुछ रोचक जगहें भी दिखाएगा, पर पैसे मत दें उसको। पैसे के लिए काम नहीं कर रहा। अभी छुट्टियाँ बिता रहा है और अपनी अंग्रेजी कि जानकारी बढ़ाना चाहता है। पर उसके लिए पढ़ाई करना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उसका परिवार गरीब है और किताब खरीद नहीं सकता। इसलिए उसका अध्यापक कभी कभी नाराज़ हो जाता है और उसको थप्पड़ भी मारता है। चलते चलते अचानक पूछ उठा: "मेरी दूकान" में आ जाएँगी? एक बार ज़रा देख लें, बढ़िया चीज़ें मिलती हैं उसमें। और उसी दूकान कि ओर चल दिया जहाँ हमने रिक्शेवाले के लिए टी-शर्ट ढूँढा।

हमको दृढ़ता से आपत्ति लगानी पड़ी, कि हम यहाँ कुछ देर पहले ही आ चुकी हैं, ताकि वह पलटे और हम आगे चलें। फिर इन्टरनेट शॉप मिल गयी और जब तक हम ई-मेल लिख रही थीं वह धीरता से इंतज़ार कर रहा था फिर आगे घुमाया। "उसकी" दूसरी दुकान आ गयी, जो हमने देख ली पर खरीदा कुछ नहीं। उसने कहा कोई बात नहीं। खरीदने की ज़रुरत नहीं, बस देख लें और वह खुश हो जाएगा। अगला कार्यक्रम एक हिन्दू मंदिर के दर्शन का था। उसका पीछा करके हमने मंदिर की सारी इमारतें, मूर्तियाँ, बड़ा बाग़ देख लिया। फिर उसने बाग़ में खाना भी खिलाया, चाय, पानी पिलाया फिर मंदिर छोड़के हम पहलेवाले रस्ते में लौटने लगे। जाते जाते अंग्रेजी किताब वाली समस्या की बात फिर से छिड़ आई जिस तरह दिन में पहले भी कई बार आ चुकी थी।

आखिर में हमने पूछ लिया कि पास में कोई किताबवाली दुकान है? शायद एक किताब खरीद दें। ज़रूर मिलती थी। लड़के ने किताबवाली दुकान दिखाने के लिए तैयार होकर हमसे बहुत धन्यवाद कहा। पर किताब लेने से पहले एक दूसरी दुकान देखने के लिए कहा। कपड़ेवाली। हमको भारतीय वेश की ज़रूरत होगी। अगर अपनेवाले पहनेंगी वह तो धन-दौलत की प्रतीक लगेगी। पर अगर हमारे पास इंडियन वेश है तो हमको राहत मिलेगा। अगर वह पहनती हैं तो हम इंडियन बनेंगी, अगर नहीं तो अमीर लोग ही। हमको इंडियन कपडे लेने हैं!

हमको सरासर शक तो था कि अगर हम भारतीय पोशाक पहन रखेंगी तो क्या हमारा रंग और हुलिया नज़रंदाज़ किया जाएगा। बहरहाल अब तक हम कहीं भी गईं सच में सब हमको घूरते ही रहते थे। हमने दो सूट पहनके देखे, जो थोड़े ढीले लग रहे थे, पर वैसे इतनी गर्मी में हमारे कपड़ों से ज़्यादा आरामदेह भी। हमको ज़रूर ज़रा भी अंदाजा नहीं था कि एक इंडियन सूट कैसा दिखना चाहिए और हमने ये शंकाएँ दुकानवाले के सामने भी प्रकट कीं। स्वभावतः उसने हमारी चिंता कम करके बताया कि इनको ठीक ऐसे ही दिखना है, इनका साइज़ ठीक हमारा ही है, यों सौदा मंज़ूर हुआ। जब तक हमारे कपड़े कसे जा रहे थे तो हमें जेवर वाले विभाग की भी जांच करनी पड़ी, जहाँ बेचनेवाला हमको इस बात पर निश्चय दिलाने में बहुत व्यस्त रहा कि हमारे पास 2000 रुपये ज़रूर होंगे, चाँदी की चूड़ी के लिए। फिर हमको पीछेवाले एक कमरे में लिया गया था अपने कपड़े लेने के लिए, जहाँ तक एक बड़ी सी कालीन वाली दूकान पार करके जाना था। बहुत चतुराई का विचार है!

कपड़े वाली घटना के बाद हम सीधे रास्ते से किताब की दुकान तक पहुँचे। दुकानवाले ने एक बड़ी मोटी और पुरानी दिखनेवाली किताब हमारे दोस्त के सामने रखी और एक कलम भी उसके साथ लपेट दी। जल्दी ही पता चला, कि किताब का दाम यहाँ भी घर से कम नहीं होता, पर अब तो कोई बात नहीं, हमने इसके द्वारा लड़के की पूरे दिन की मेहनत का प्रतिदान किया। वह बहुत कृतज्ञ हुआ और एक ऑटोरिक्शा भी पकड़ा हमारे लिए, जिससे हम घर की तरफ चल दिए। हमें पूरी उम्मीद थी कि किताब भी उसके पास ही रहेगी और दुकान में लौटेगी नहीं कुछ इनाम के बदले में, जैसे बाकी टूरिस्ट वाली दुकानों से मिला अधिकार मिलता है बीच बचाव के लिए।

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