बुधवार, 12 मई 2010

बुदापैश्त- कुछ क्षणिकाएँ

पूर्णिमा वर्मन--

1
शहर
यह सुंदर बहुत है
धूप की स्मित
मधुर है
हवा में ठंडक बहुत है
2.
झर रही है धूप झिलमिल
पत्तियों से
ढँक रहीं पूरा भवन
कोमल लताएँ
और दीवारों की ईँटें बोलती है
3.
झूलते हैं
खिड़कियों से फूल कोमल
श्वेत पर्दे झिलमिलाते हैं
कि पीछे
कोई रहता है
4.
आलमारी में किताबें
छात्र सोफ़ों पर
एक कोना चाय का
ये कमरा मारिया का है
5.
हर बुनावट में
खिल रही हिंदी
नाटक खेलते हैं छात्र
कमरा खिलखिलाता है।
6.
उछलती हैं टोपियाँ
अनुवाद करती हैं खुशी का
आज दो भाषाओं पर
पुल बाँध कर वह छोर देखा
7.
हलचलों में गुम गली है
रौशनी की खलबली है
शहर में शाम
उतरी है
8.
धूप संग
आराम पसरा है
छरहरे पेड़ों की चिक में
दोपहर का सुस्त आलम
औ’ हवा की एक करवट

9.
एक छज्जा, एक छतरी
और नीचे को लटकते फूल
आज खिड़की
शाम तक बोली नहीं कुछ भी
10.
शाम रौशन
काम से छुट्टी
भीड़ गहमह
छतरियों के झुंड
अपनापन स्वजन का
तश्तरी में स्वाद मन का

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